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१३२ : भगवान् पार्श्वनाथ की विरासत
अर्थात् वे पार्श्वनाथ के परम्परा संघ और महावीर के नवस्थापित संघ - दोनों के संधान में एक कड़ी बनते हैं । इससे यह मानना पड़ता है कि, महावीर ने जो संघ रचा उसकी भित्ति पार्श्वनाथ की संघ-परंपरा है ।
यद्यपि कई पावपित्यिक महावीर के संघ में प्रविष्ट हुए, तो भी कुछ पाश्वपत्यिक ऐसे भी देखे जाते हैं, जिनका महावीर के संघ में सम्मिलित होना निर्दिष्ट नहीं है । इसका एक उदाहरण भगवती २-५ में यों है - तुन्गीया नामक नगर में ५०० पावपित्यिक श्रमण पधारते हैं । वहाँ के तत्वज्ञ श्रमणोपासक उनसे उपदेश सुनते हैं, पावपित्यिक स्थविर उनको चार याम आदि का उपदेश करते हैं । श्रावक उपदेश से प्रसन्न होते हैं और धर्म में स्थिर होते हैं । के स्थविरों से संयम, तप आदि के विषय में तथा उसके फल के विषय में प्रश्न करते हैं । पावपित्यिक स्थविरों में से कालियपुत्त, मेहिल, आनन्द रक्खिय और कासव ये चार स्थविर अपनी-अपनी दृष्टि से जवाब देते हैं । पावपित्यिक स्थविर और पारवपित्यिक श्रमणोपासक के बीच तुन्गीया में हुए इस प्रश्नोत्तर का हाल इन्द्रभूति राजगृही में सुनते हैं और फिर महावीर से पूछते हैं कि- "क्या ये पावपित्यिक स्थविर प्रश्नों का उत्तर देने में समर्थ हैं ?" महावीर स्पष्टतया कहते हैं कि -- " वे समर्थ हैं उन्होंने जो जवाब दिया वह सच है; मैं भी वही जवाब देता ।" इस संवादकथा में ऐसा कोई निर्देश नहीं कि, तुन्गीया वाले पाश्वपत्यिक निर्ग्रन्थ या श्रमणोपासक महावीर के संघ में प्रविष्ट हुए । यदि वे प्रविष्ट होते तो इतने बड़े पाश्र्वापत्यिक संघ के महावीर के संघ में सम्मिलित होने की बात समकालीन या उत्तरकालीन आचार्य शायद ही भूलते ।
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यहाँ एक बात खास ध्यान देने योग्य है कि, पारवपित्यिक श्रमण न तो महावीर के पास आये हैं, न उनके संघ में प्रविष्ट हुए हैं, फिर भी महावीर उनके उत्तर को सच्चाई और क्षमता को स्पष्ट स्वीकार ही करते हैं ।
दूसरी बात ध्यान देने योग्य यह है कि, जो पाश्र्वापत्त्रिक महावीर के संघ में आये वे भी महावीर की सर्वज्ञता के बारे में
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