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१३६ : भगवान् पाननाथ की विरासत (पृ० २०) में ऐसा हो मत दर्शाया है। इसी से हम उत्तराध्ययन के केशी-गौतम-संवाद में अचेल और सचेल धर्म के बीच समन्वय पाते हैं। उसमें खास तौर से कहा गया है कि, मोक्ष के लिये तो मुख्य और पारमार्थिक लिंग-साधन ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप आध्यात्मिक सम्पत्ति ही है । अचेलत्व या सचेलत्व यह तो लौकिक-बाह्य लिंगमात्र है, पारमार्थिक नहीं।
इस तात्पर्य का समर्थन भगवती आदि में वणित पाश्र्वापत्यिकों के परिवर्तन से स्पष्ट होता है। महावीर के संघ में दाखिल होने वाले किसी भी पार्वापत्यिक निग्रंथ के परिवर्तन के बारे में यह उल्ले व नहीं है कि, उसने सचेलत्व के स्थान में अचेलत्व स्वीकार किया; जब कि उन सभी परिवर्तन करनेवाले निग्रंथों के लिये निश्चित रूप से कहा गया है कि उन्होंने चार याम के स्थान में पाँच महावत और प्रतिकपणधर्म स्वीकार किया।
महावीर के व्यक्तित्व, उनको आध्यात्मिक दृष्टि और अनेकान्तवृत्ति को देखते हुये ऊपर वर्णन की हुई सारो घटना का मेल सुसंगत बैठ जाता है। महावत और प्रतिक्रमण का सुधार, यह अन्तःशुद्धि का सुधार है इसलिये महावीर ने उस पर पूरा भार दिया, जबकि स्वयं स्वीकार किये हुए अचेलत्व पर एकान्त भार नहीं दिया। उन्होंने सोचा होगा कि, आखिर अचेलत्व या सचेलत्व, यह कोई जीवन-शुद्धि को अन्तिम कसौटी नहीं है। इसीलिये उनके निग्रंथसंघ में सचेल और अचेल दोनों निग्रंथ अपनी-अपनी रुचि एवं शक्ति का विचार करके ईमानदारी के साथ परस्पर उदार भाव से रहे होंगे। उत्तराध्ययन का वह संवाद उस समय की सूचना देता है, जब कि कभी निग्रंथों के बीच सचेलत्व और अचेलत्व के बारे में सारासार के तारतम्घ की विचारणा चली होगी। पर उस समन्वय के मूल में अनेकान्त दृष्टि का जो यथार्थ प्राण स्पन्दित होता है वह महावीर के विचार की देन है ।
पर्वापत्यिक परम्परा में जो चार याम थे उनके नाम स्थानांगसूत्र में यों आते हैं; (१) सर्वप्राणातिपात-, (२) सर्शमृषावाद-,
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