Book Title: Char Tirthankar
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Shobhachad Bharilla, Bhavarmal Singhi, Sagarmal Jain, Dalsukh Malvania
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 134
________________ चार तीर्थंकर : १२७ खुद बुद्ध अपनी बुद्धत्व के पहले की तपचा और चर्या का जो वर्णन करते हैं उसके साथ तत्कालीन निग्रंथ आचार' का हम जब मिलान करते हैं, कपिल वस्तु के निग्रंथ श्रावक वप्प शाक्य का निर्देश सामने रखते हैं तथा बौद्ध पिटकों में पाये जाने वाले खास आचार और तत्वज्ञान सम्बन्धी कुछ पारिभाषिक शब्द, जो केवल निग्रंथ प्रवचन में ही पाये जाते हैं-इन सब पर विचार करते हैं तो १. तुलना-दशवकालिक, अ० ३, ५-१ और मज्झिमनिकाय, महासिंहनादसुत्त । २. पुग्गल, आसव, संवर, उपोसथ, सावक, उगासग इत्यादि । "पुग्गल" शब्द बौद्ध पिटक में पहले ही से जीव व्यक्ति का बोधक रहा है। (मज्झिमनिकाय ११४) । जैनपरम्परा में वह शब्द सामान्य रूप से जड़ परमाणुओं के अर्थ में रूढ़ हो गया है। तो भी भगवती, दशावैकालिक के प्राचीन स्तरों में उसका बौद्ध पिटक स्वीकृत अर्थ भी सुरक्षित रहा है। ___भगवती के ८-१०-३६१ में गौतम के प्रश्न के उत्तर के महावीर के मुख से कहलाया है कि, जीव "पोग्गली" भी है और "पोग्गल' भी। इसी तरह भगवती के २०-२ में जीवतत्व के अभिवचन-पर्यारूप से "पुद्गल" पद आया है । दशवैकालिक ५-१७३ में "पोग्गल" शब्द "मांस" अर्थ में प्रयुक्त है, जो जीवनधारी के शरीर से सम्बन्ध रखता है ध्यान देने योग्य बात यह है कि वह शब्द-बौद्ध श्रुत से भिन्न किसी भी प्राचीन उपलब्ध श्रु त में देखा नहीं जाता। "आसव" और "संवर" ये दोनों शब्द परस्पर विरुद्धार्थक हैं। आसव चित्त या आत्मा के क्लेश का बोधक है, जब कि संवर उसके निवारण एवं निवारणोपाय का। ये दोनों हले से जैन-आगम और बौद्ध पिटक में समान अर्थ ही प्रयुक्त देखे जाते हैं (तत्वार्थाधिगम सूत्र ६-१, २, ८-१, ६-१; स्थानांगसूत्र १ स्थान; समवायांगसूत्र ५ समवाय; मज्झिमनिकाय २ । "उपोसथ" शब्द गृहस्थों के उपब्रत-विशेष का बोधक है, जो पिटकों में आता है (दीघनिकाय २६) । उसोका एक रूप पोसह भो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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