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[चार तीर्थकर : ८३ में के क्लेशकलहकारक असंयम रूप विष को दूर करना, जनता के सामने अपने तमाम जीवन द्वारा पदार्थपाठ उपस्थित करना, यही शुद्धधर्म है।
और संसार सम्बन्धी तमाम प्रवृत्तियों में रहते हुए भी उनमें 'निष्कामता या निर्लेपता का अभ्यास करके, उन प्रवृत्तियों के सामजस्य द्वारा जनता को उचित मार्ग पर ले जाने का प्रयास करना अर्थात् जीवन के लिए अति आवश्यक प्रवृत्तियों में पग-पग पर आने वाली अड़चनों का निवारण करने के लिए, जनता के समक्ष अपने समग्र जीवन द्वारा लौकिक प्रवृत्तियों का भी निविष रूप से पदार्थ'पाठ उपस्थित करना, यह शुद्धकर्म है । ___ यहाँ लोककल्याण की वृत्ति यह एक सत्य है। उसे सिद्ध करने के लिये जो दो मार्ग हैं वे एक ही सत्य के धर्म और कर्म रूप दो बाजू हैं। सच्चे धर्म में सिर्फ निवृत्ति ही नहीं किन्तु प्रवृत्ति भी होती है। सच्चे कर्म में केवल प्रवृत्ति ही नहीं मगर निवृत्ति भी होती है। दोनों में दोनों ही तत्त्व विद्यमान हैं, फिर भी गौणता और मुख्यता का तथा प्रकृति-भेद का अन्तर है। अतः इन दोनों तरीकों से स्व तथा पर कल्याणरूप अखण्ड सत्य को साधा जा सकता है। ऐसा होने पर भी धर्म के नाम से अलग-अलग सम्प्रदायों की स्थापना क्यों हुई, यह एक रहस्य है। किन्तु यदि साम्प्रदायिक मनोवृत्ति का विश्लेषण किया जाय तो इस अनुद्घाट्य प्रतीत होने वाले रहस्य का उद्घाटन स्वयमेव हो जाता है।
स्थूल या साधारण लोग जब किसी आदर्श की उपासना करते हैं तो साधारणतया वे उस आदर्श के एकाध अंश को अथवा उसके ऊपर के खोखले से ही चिपट कर उसी को सम्पूर्ण आदर्श मान बैठते हैं। ऐसी मनोदशा के कारण धर्मवीर के उपासक, धर्म का अर्थ अकेली निवृत्ति समझ कर उसी की उपासना में लग गये और अपने चित्त में प्रवत्ति के संस्कारों का पोषण करते हए भी प्रवृत्ति अंश को विरोधी समझ कर अपने धर्मरूप आदर्श से उसे जुदा रखने की भावना करने लगे। दूसरी ओर कर्मवीर के भक्त कर्म का अर्थ सिर्फ प्रवृत्ति करके, उसी को अपना परिपूर्ण आदर्श मान बैठे और
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