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८२ : धर्मवीर महावीर और कर्मवीर कृष्ण] अपने आत्मबल और दृढ़ निश्चय द्वारा जीत लेते हैं और अपने ध्येय में आगे बढ़ते हैं। यह विजय कोई ऐसा वैसा साधारण मनुष्य नहीं प्राप्त कर सकता, अतः इस विषय को दैवी विजय कहने में जरा भी अतिशयोक्ति नहीं है। कर्मवीर कृष्ण के जीवन में यह पुरुषार्थ बहिर्मुख होकर लोकसंग्रह और सामाजिक नियमन का रास्ता लेता है। इस ध्येय को सफल बनाने में शत्रुओं या विरोधियों की ओर से जो अड़चनें डाली जाती हैं, उन सबको कर्मवीर कृष्ण अपने धैर्य, बल तथा चतुराई से हटाकर अपना कार्य सिद्ध करते हैं। यह लौकिक सिद्धि साधारण जनता के लिए अलौकिक या दैवी मानी जाय तो कुछ असंभव नहीं। इस प्रकार हम इन दोनों महान् पुरुषों के जीवन को, यदि कलई दूर करके पढ़ें तो उलटे अधिक स्वाभाविकता और संगतता नजर आती है और उनका व्यक्तित्व अधिकतर माननीय, विशेषतया इस युग में, बन जाता है। उपसंहार
कर्मवीर कृष्ण के सम्प्रदाय के भक्तों को धर्मवीर महावीर के आदर्श की विशेषताएँ चाहे जितनी दलीलों से समझाई जाँय, किन्तु वे शायद ही पूरी तरह उन्हें समझ सकेंगे। इसी प्रकार धर्मवीर के सम्प्रदाय के अनुयायी भी शायद ही कर्मवीर कृष्ण के जीवनादर्श की खबियाँ समझ सकें। जब हम इस साम्प्रदायिक मनोवृत्ति को देखते हैं तो यह विचार करना आवश्यक हो जाता है कि वास्तव में धर्म और कर्म के आदर्शों के बीच ऐसा कोई विरोध है जिससे एक आदर्श के अनुयायी दूसरे आदर्श को एकदम अग्राह्य कर देते हैं या उन्हें वह आग्राह्य प्रतीत होता है ? _ विचार करने से मालूम होता है कि शुद्धधर्म और शुद्धकर्म, ये दोनों एक ही आचरणगत सत्य के जुदा-जुदा बाजू हैं। इनमें भेद हैं किन्तु विरोध नहीं है।
सांसारिक प्रवृत्तियों को त्यागना और भोगवासनाओं से चित्तको निवृत्त करना तथा इसी निवृत्ति द्वारा लोककल्याण के लिए प्रयत्न करना अर्थात् जीवन धारण के लिए आवश्यक प्रवृत्तियों की व्यवस्था का भार भी लोकों पर ही छोड़कर सिर्फ उन प्रवृत्तियों
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