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११० : भगवान् महावीर का जीवन ]
अगले जैन तर्क-ग्रन्थों में जातिवाद का जो प्रबल खण्डन है उसका क्या अर्थ है ? ऐसा प्रश्न हुए बिना नहीं रहता । इस प्रश्न का इसके सिवाय दूसरा कोई खुलासा ही नहीं है कि भगवान् महावीर ने जातिवाद' का जो प्रबल विरोध किया था वह किसी न किसी रूप में पुराने आगमों में सुरक्षित रह गया है । भगवान् द्वारा किये गये इस जातिवाद के विरोध के तथा उस विरोध के सूचक आगमिक भागों के महत्व का मूल्यांकन ठीक-ठीक करना हो तो भगवान् की जीवनी लिखने वाले को जातिवाद के समर्थक प्राचीन ब्राह्मण-ग्रन्थों को देखना ही होगा ।
महावीर ने बिल्कुल नई धर्म-परंपरा को चलाया नहीं है किंतु उन्होंने पूर्ववर्ती पार्श्वनाथ की धर्म-परंपरा को ही पुनरुज्जीवित किया है । वह पार्श्वनाथ की परंपरा कैसी थी, उसका क्या नाम था इसमें महावीर ने क्या सुधार या परिवर्तन किया, पुरानी परं परा वालों के साथ संघर्ष होने बाद उनके साथ महावीर के सुधार का कैसा समन्वय हुआ, महावीर का निज व्यक्तित्व मुख्यतया किस बात पर अवलंबित था, महावीर के प्रतिस्पर्धी मुख्य कौन-कौन थे, उनके साथ महावीर का मतभेद किस-किस बात में था, महावीर आचार के किस अंश पर अधिक भार देते थे, कौन-कौन राजे-महाराजे आदि महावीर को मानते थे, महावीर किस कुल में हुए इत्यादि प्रश्नों का जवाब किसी न किसी रूप में भिन्न-भिन्न जैनआगम-भागों में सुरक्षित है । परन्तु वह जवाब ऐतिहासिक जीवनी का आधार तभी बन सकता है जबकि उसकी सच्चाई और प्राचीनता बाहरी सबूतों से भी साबित हो। इस बारे में बौद्ध-पिटक के पुराने अंश सीधे तौर से बहुत मदद करते हैं क्योंकि जैसा जैनागमों में पार्श्वनाथ के चातुर्याम धर्म का वर्णन है ठीक वैसा ही चातुर्याम निर्मन्थ धर्म का निर्देश बौद्ध पिटकों में भी है । इस बौद्ध उल्लेख
१. सन्मतिटीका पृ० ६६७; न्यायकुमुदचन्द्र पृ० ७६७ इत्यादि ।
२. उत्तराध्ययन अ० २५ गाथा ३३ ।
३. उत्तराध्ययन अ० २३; भगवती श० २ उ० ५, इत्यादि । ४ दीघनिकाय - सामञ्ञफलसुत्त ।
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