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चार तीर्थंकर : १२१
से वह विद्यमान नहीं रहता । हमारी कल्पना में भी न आवे इस प्रकार की तीव्र गति से वह आता और चला जाता है । किन्तु उसमें संचित होनेवाले संस्कार नये-नये वर्तमान के बिन्दु में समाविष्ट होते जाते हैं । भगवान् महावीर ने अपने जीवन में जिस आध्यात्मिक विरासत को प्राप्त किया और सिद्ध किया वह उनके पुरुषार्थ का परिणाम है यह सच है, किन्तु इसके पीछे अज्ञात भूतकालीन वैसी विरासत की सतत परंपरा विद्यमान है । कोई उसे ऋषभ या नेमिनाथ या पार्श्वनाथ आदि से प्राप्त होने का बता सकते हैं किन्तु मैं इसे एक अर्ध सत्य के रूप में ही स्वीकार करता हूं । भगवान् महावीर से पहले मानवजाति ने ऐसे जिन महापुरुषों की सृष्टि की थी, वे जिस किसी नाम से प्रसिद्ध हुए हों, अथवा अज्ञात रहे हों, किन्तु उन समग्र आध्यातमिक पुरुषों की साधना की संपत्ति मानवजाति में इस प्रकार से उत्तरोत्तर संक्रान्त होती जाती थी कि उसके लिए यह कहना कि यह सब संपति किसी एक ने सिद्ध की है तो यह सिर्फ एकमात्र भक्ति है । भगवान् महावीर ने ऐसे ही आध्यात्मिक कालस्रोत में से उपरिसूचित मांगलिक विरासत को प्राप्त किया है और अपने पुरुषार्थ के बल से उसे जीवन्त - सजीव बना कर, विशेषरूप से विकसित करके, देश और कालानुसार उसको समृद्ध बनाकर हमारे समक्ष उपस्थित किया है । मैं नहीं जानता कि उनके बाद होनेवाले उत्तरकालीन कितने वेशधारी सतों ने उस मांगलिक विरासत में से कितना प्राप्त किया और विकसित किया, किन्तु यह तो कहा जा सकता है कि जिस प्रकार उस बिन्दु में भूतकालीन महान् समुद्र समाविष्ट है उसी प्रकार भविष्य का अनन्त समुद्र भी उसी बिन्दु में समाविष्ट है । अतएव भविष्य की धारा उस बिन्दु द्वारा अवश्य आगे बढ़ ेगी ।
जब उपनिषदों में 'तत्त्वमसि' ऐसा कहा गया तब उसका अर्थ अन्य प्रकार से यह है कि तुम अर्थात् जीवदशा प्राप्त स्वयं ही वही शुद्ध परमात्मस्वरूप हो हो । यह भी शक्ति और योग्यता की दृष्टि से बिन्दु में सिन्धु के समावेश का एक दृष्टान्त ही है ।
ऊपर सूचित चतुर्थ प्रकार की विरासत को ध्यान में रखकर ही बौद्ध मङ्गलसूत्र में कहा गया है कि 'एतं मङ्गलसुत्तमं ' यह एक
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