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१२० : भ० महावीर की मंगल विरासत
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चेतनतत्व हो तो साधक का धर्म यह है कि वह त्याग करके ही भोग करे । मैं तो यह कहता हूं कि वैसा साधक त्याग करने के बाद ही भोग के सुख का आनन्द प्राप्त करता है । इतना ही नहीं, किन्तु उसे तो त्याग में ही भोग का सुख मिलता है । वैसे साधक के लिए त्याग स े भिन्न कोई भोग नहीं होता । दुनियावी व्यवहार में माता जब संतुति के लिए त्याग करती है, तब वह उसी में उपभोग का परम सुख प्राप्त करती है । जबकि यहाँ तो अध्यात्म साधक की बात हो रही है । वह ऋषि अन्तमें सभी साधकों को एक बात की चेतावनी देता है कि उसे किसी भी वस्तु में वृद्धि अर्थात लोभ या ममता का सेवन न करना चाहिए। किन्तु वह मात्र जीवनव्यवहार का विचार करे । हम निःशंकरूप से देख सकते हैं कि जो मांगलिक विरासत भगवान् महावीर के उपदेश से प्राप्त होती है वही उपनिषदों में से भी प्राप्त होती है और बुद्ध या वैसे अन्य महान् वीरों ने इसके अलावा और क्या कहा है ?
इस अर्थ में मैं उपनिषद् के कर्ता द्वारा प्रयुक्त भूमा शब्द का प्रयोग करके यदि कहूं कि महावीर अर्थात् भूमा और वही ब्रह्म है तो इससे तनिक भी असंगति नहीं है । महावीर भूमा थे, महान् थे इसीलिए वे सुखरूप थे, इसीलिए वे अमृत थे । कभी उन्हें दुःख का स्पर्श हो नहीं सकता और कभी उनकी मृत्युसम्भव नहीं। दुख या मृत्यु यह तो अल्प का होता है, संकुचित दृष्टि का होता है, पामर का होता है, वासना - वद्धका होता है, जिसका सम्बन्ध केवल स्थूल और सूक्ष्म शरीर के साथ ही संभव है । जिन महावीर के विषय में मैं कहता हूं वे तो उन दोनों शरीर से परे होने के कारण भूमा हैं, अल्प नहीं हैं ।
इतिहासकार जिस रीति से विचार करते हैं उस रीति से विचार करने पर यह प्रश्न उठना स्वभाविक है कि महावीर ने जिस मंगल विरासत को दूसरों को दिया है वह स्वयं उन्हें कहाँ से किस प्रकार प्राप्त हुई थी ? इसका उत्तर सरल है । शास्त्र और व्यवहार में कहा जाता है कि बिन्दु में सिन्धु समा जाता है। सुनने पर तो यह विपरीत वचन प्रतीत होता है । किन्तु यह सच बात है । महावीर के स्थूल जीवन का परिमित काल यह तो भूतकाल के महान् समुद्र का एक बिन्दुमात्र है । भूतकाल तो भूत है । सत् रूप
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