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[चार तीर्थंकर : ६३ दृष्टि की प्रतिष्ठा को पूरा अवकाश मिला है। मुझे जहाँ कहीं से भी सद्गुण जानने और प्राप्त करने की प्रेरणा मूलतः भगवान् महावीर के जीवन से ही मिली है। इस पर से मैं यह कहना चाहता हूं कि किसी भी महापुरुष के जीवन को सिर्फ ऊपर-ऊपर से सुन कर उस पर श्रद्धा करना या सिर्फ तर्कबल से उसकी समीक्षा करना यह जीवन-विकास के लिए पर्याप्त नहीं है। उस दिशा मे प्रगति की इच्छा रखने वाले के लिए श्रवण-मनन के उपरान्त निदिध्यासन करना आवश्यक है।
मुझे स्वीकार करना चाहिए कि संशोधन-कार्य में कितना ही श्रम क्यों न किया हो फिर भी मेरी वह भूमिका अत्यन्त अपूर्ण ही है। उसका प्रदेश विस्तृत है। यह अतिश्रम, अतिसमय, अति-एकाग्रता और अति-तटस्थता की अपेक्षा रखती है। मेरे मन में अंकित महावीर का चित्र कैसा भी क्यों न हो फिर भी वह परोक्ष ही है। जब तक महावीर का जीवन जीया न जाय, उनकी आध्यात्मिक साधना को अपने जीवन में सिद्ध न किया जाय तब तक उनके आध्यात्मिक जीवन का साक्षात्कार हजार प्रयत्न करने पर भी संशोधन की भूमिका पर से हो नहीं सकता। यह सत्य मैं जानता हूं इसी से नम्र बनता हूं। प्रथम दिये गये चित्र या मूर्ति के दृष्टांत का आश्रय लेकर वक्तव्य स्पष्ट करना हो तो ऐसा कहा जा सकता है कि कितना ही निकट जाकर चित्र या मूति का द्रष्टा भी आखिर में तो चित्र की रेखा कृत और रंग की खूबियों या मूर्तिगत शिल्पविधान की खूबियों को ही अधिक बारीकी से जान सकेगा और अधिक हुआ तो उन खूबियों से व्यक्त होने वाले भावों का संवेदन कर सकेगा किन्तु जिसका चित्र या मूर्ति हो उसके जीवन का साक्षात् अनुभव तो वह द्रष्टा तब ही कर सकेगा जब कि वह स्वयं वैसा जीवन जीयेगा। सर्वश्रेष्ठ कवि के महाकाव्य का कितना ही आकलन क्यों न किया जाय फिर भी काव्य में वर्णित जीवन का जब तक साक्षात् स्वानुभव न हो तब तक वह परोक्ष कोटि में ही रहता है । इसी प्रकार भगवान महावीर के द्वारा सिद्ध की गई आध्यात्मिक साधना की दिशा में गतिहीन मेरे जैसा मनुष्य महावीर के विषय में
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