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१०२ : भगवान् महावीर का जीवन] थी कि महावीर तो त्रिशलापुत्र हैं जब इनेगिने लोग कहते थे कि नहीं, महावीर तो देवानन्दा ब्राह्मणी के पुत्र हैं। यह विरोधी चर्चा जब भगवान् के कानों तक पहुंची तब उन्होंने सच्ची बात कह दी कि मैं तो देवानन्दा का पुत्र हैं। भगवान् का यही कथन भगवती के नवम शतक में सुरक्षित है और त्रिशलापुत्र रूप से उनको जो लोकप्रसिद्धि थी वह आचारांग के प्रथम श्रु तस्कंध में सुरक्षित है। उस समय तो विरोध का समाधान भी ठीक-ठीक हो गया-दोनों प्रचलित बातें परंपरा में सुरक्षित रहीं और एक बात एक आगम में तो दूसरी दूसरे आगम में निर्दिष्ट भी हुई। महावीर के निर्वाण के बाद दो सौ चार सौ वर्ष में जब साधु-संघ में एक या दूसरे कारण से अनेक मतान्तर और पक्षभेद हुए तब आगम-प्रामाण्य का प्रश्न उपस्थित हुआ जिसने आचारांग के प्रथम श्रु तस्कंध को तो पूरा प्रमाण मान लिया पर दूसरे आगमों के बारे में संशय उपस्थित किया, उस परंपरा में तो भगवान् की एकमात्र त्रिशलापत्र रूप से प्रसिद्धि रह गई और आगे जाकर उसने देवानन्दा के पुत्र होने की बात को बिल्कुल काल्पनिक कहकर छोड़ दिया। यही परंपरा आगे जाकर दिगंबर परंपरा में समा गई। परंतु जिस परंपरा ने आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध की तरह दूसरे आगमों को भी अक्षरशः सत्य मान कर प्रमाण रूप से मान रखा था उसके सामने विरोध उपस्थित हुआ, क्योंकि शास्त्रों में कहीं भगवान् की माता का त्रिशला रूप से तो कहीं देवानंदा के रूप से सूचन था। उस परंपरा के लिये एक बात का स्वीकार और दूसरे का इंकार करना तो शक्य ही न रह गया था। समाधान कैसे किया जाय? यह प्रश्न आचार्यों के सामने आया । असली रहस्य तो अनेक शताब्दियों के गर्भ में छिप ही गया था। __ वसुदेव की पत्नी देवकी के गर्भ को सातवें महीने में दिव्यशक्ति के द्वारा दूसरी पत्नी रोहिणी के गर्भ में रखे जाने की जो बात साधारण लोगों में व पौराणिक आख्यानों में प्रचलित थी उसने तथा देवसृष्टि की पुरानी मान्यता ने किसी विचक्षण आचार्य को नई कल्पना करने को प्रेरित किया जिसने गर्भापहरण की अद्भुत घटना को एक आश्चर्य कहकर शास्त्र में स्थान दे दिया। फिर तो अक्षरशः
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