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[चार तीर्थंकर : १०१ कि जिसके कारण त्रिशला ने अपने जीते जो उन्हें उनको सहज वृत्ति के अनुसार दीक्षा लेने की अनुमति दी न होगी। भगवान् ने भी त्रिशला का अनुसरण करना ही कर्तव्य समझा होगा।
२-दूसरा यह भी संभव है कि महावीर छोटो उम्र से ही उस समय ब्राह्मण-परंपरा में अतिरूढ़ हिंसक यज्ञ और दूसरे निरर्थक क्रिया-काण्डों कुलधर्म से विरुद्ध संस्कार वाले -त्याग प्रकृति के थे। छोटी उम्र में ही किसी निर्ग्रन्थ-परंपरा के त्यागी भिक्षु के संसर्ग में आने का मौका मिला होगा और उस निर्ग्रन्थ संस्कार से साहजिक त्यागवृत्ति की पुष्टि हुई होगी। ___ महावीर के त्यागाभिमुख संस्कार, होनहार के योग्य शुभ लक्षण और निर्भपता आदि गुण देखकर उस निर्ग्रन्थ गुरु ने अपने पक्के अनुयायी सिद्धार्थ और त्रिशला के यहाँ उनको संवर्धन के लिए रखा होगा जैसा कि आचार्य हेमचन्द्र को छोटी उम्र से ही गुरु देवचन्द्र ने अपने भक्त उदयन मंत्री के यहाँ संवर्धन के लिए रखा था। महावीर के सद्गुणों से त्रिशला इतनी आकृष्ट हई होगी कि उसने अपना ही पुत्र मानकर उनका संवर्धन किया। महावीर भी त्रिशला के सद्भाव और प्रम के इतने अधिक कायल होंगे कि वे उसे अपनी माता ही समझते और कहते थे। यह सम्बन्ध ऐसा पनपा कि त्रिशला ने महावीर के त्याग-संस्कार को पुष्टि की पर उन्हें अपने जीते जी निर्ग्रन्थ बनने की अनुमति न दी। भगवान् ने भी माता की इच्छा का अनुसरण किया होगा। खुलासा कोई भी हो-हरहालत में महावीर, त्रिशला और देवानन्दा अपना पारस्परिक सम्बन्ध तो जानते ही थे। कुछ दूसरे लोग भी इस जानकारी से वंचित न थे। आगे जाकर जब महावीर उग्र-साधना के द्वारा महापुरुष बने तब त्रिशला का स्वर्गवास हो चुका था। महावीर स्वयं सत्यवादी संत थे इसलिए प्रसंग आने पर मूल बात को नहीं जाननेवाले अपने शिष्यों को अपनी असली माता कौन है इसका हाल बतला दिया। हाल बतलाने का निमित्त इसलिए उपस्थित हुआ होगा कि अब भगवान् एक मामूली व्यक्ति न रहकर बड़े भारी धर्मसंघ के मुखिया बन गये थे और आसपास के लोगों में बहुतायत से यही बात प्रसिद्ध
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