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[चार तीर्थंकर : १०५
वीर की जीवनी में आ गया है । ___ तीसरी बात देवसृष्टि की है। श्रमग-परंपरा में मानवीय चरित्र और पुरुषार्थ का ही महत्त्व है। बुद्ध की तरह महावीर का महत्त्व अपने चरित्र-शुद्धि के असाधारण पुरुषार्थ में है । पर जब शुद्ध आध्यात्मिक धर्म ने समाज का रूप धारण किया और उसमें देव-देवियों की मान्यता रखनेवाली जातियाँ दाखिल हुई तब उनके देवविषयक वहमों की तुष्टि और पुष्टि के लिए किसी-न-किसी प्रकार से मानवीय जीवन में देवकृत चमत्कारों का वर्णन अनिवार्य हो गया। यही कारण है कि महावस्तु और ललितविस्तर जैसे ग्रन्थों में बुद्ध की गर्भावस्था में उनकी स्तुति करने देवगण आते हैं और लुम्बिनी-वन में (जहाँ कि बुद्ध का जन्म हआ) देवदेवियाँ जाकर पहिले से सब तैयारियाँ करती हैं। ऐसे दैवी चमत्कारों से भरे ग्रंथों का प्रचार जिस स्थान में हो उस स्थान में रहने वाले महावीर के अनुपायी उनकी जीवनी को बिना दैवी चमत्कारों के सुनना पसन्द करें यह सम्भव ही नहीं है । मैं समझता हूं इसी कारण से महावीर की सारी सहज जीवनी में देवसृष्टि की कल्पित छाँट आ गई है।
पुरानी जीवन-सामग्री का उपयोग करने में साम्प्रदायिक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण में दूसरा भी एक महान् फर्क है, जिसके कारण साम्प्रदायिक भाव से लिवी गई कोई भी जोवनो सार्वजनिक प्रतिष्ठा पा नहीं सकती। वह फर्क यह है कि महावीर जैसे आध्यात्मिक पुरुष के नाम पर चलने वाला सम्प्रदाय अनेक छोटे-बड़े फिरकों में स्थूल और मामूली मतभेदों को तात्त्विक और बड़ा तत देकर बंट गया है। प्रत्येक फिरका अपनी मान्यता को पुरानी और मौलिक साबित करने के लिए उसका सम्बन्ध किसी भी तरह से महावीर से जोड़ना चाहता है। फल यह होता है कि अपनी कोई मान्यता यदि किसी भी तरह से महावीर के जीवन से सम्बद्ध नहीं होती तो वह फिरका अपनी मान्यता के विरुद्ध जाने वाले महावीर जीवन के उस भाग के निरूपक ग्रन्थों तक को (चाहे वह कितने ही पुराने क्यों न हों) छोड़ देता है, जब कि दूसरे फिरके भी अपनीअपनी मान्यता के लिए वैसी ही खिचातानी करते हैं। फल यह होता
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