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९० : धर्मवीर महावीर और कर्मवीर कृष्ण] पुष्ट किया जा सकता है। गर्भ-अपहरण के रहस्य में भी ऐसा ही कुछ रूपक होने की कल्पना होती है। कर्मकाण्ड की जटिल और रूढ़ सनातन प्रथा के ब्राह्मणसूलभ संस्कार गर्भ में से महावीर का जीव कर्मकाण्डभेदी, क्रान्तिकारक, ज्ञान-तपोमार्ग के क्षत्रियसुलभ संस्कार गर्भ में अवतीर्ण हआ- ऐसा ही अर्थ घटाना होगा। उस काल में गर्भापहरण की बात को लोग सरलता से समझ जाते थे और भक्त शंका नहीं करते थे अतएव गर्भापहरण के रूपक के ब्याज से संस्कार के गर्भ का संक्रमण वणित हुआ है ऐसा मानना पड़ता है। जन्म लेते ही अंगुष्ठ मात्र से महावीर सुमेरु जैसे पर्वत का कम्पन करते हैं यह कथा कृष्ण के गोवर्धन उत्तोलन की कथा की तरह केवल हास्यास्पद है किन्तु यदि उसे रूपक मान कर अर्थघटना की जाय तो उसका जो रहस्य है वह तनिक भी असंगत प्रतीत नहीं होता। आध्यामिक साधना के जन्म में प्रवेश करते ही अपने समक्ष उपस्थित और भविष्य के गर्भ में छिपे ऐसे आन्तर बाह्य प्रत्यवायों और परीषहों के सुमेरु को दृढ़ निश्चय बल-रूप अंगुष्ठ मात्र से कंपित किया, जीत लिया या जीतने का निश्चय किया यही उसका तात्पर्य समझना चाहिए। ऐसी सभी असंगतिओं से मुक्त जो चित्र उपस्थित होता है उसमें तो महावीर केवल करुणा और सत्पुरुषार्थ की मूर्तिरूप में ही दिखाई देते हैं।
जैनों के प्राचीनतम सूत्र आचारांग में उनके जो उद्गार सुरक्षित हैं और भगवती आदि गन्थों में उनके जो विश्वसनीय संवाद उपलब्ध हैं उन सबके आधार से भगवान् का संक्षिप्त जीवन इस प्रकार का फलित होता है
उनको विरासत में ही धर्मसंस्कार मिले थे। बचपन से ही निर्ग्रन्थ परम्परा की अहिंसावृत्ति विशेषरूप से उनमें आविर्भूत हुई थी। इस वृत्ति को उन्होंने इतना विकसित किया था कि जिससे वे अपने निमित्त से किसी के, सूक्ष्म जन्तु तक के भी, दुःख में वृद्धि न हो इस प्रकार के जीवनयापन के लिए प्रयत्नशील थे। इसी प्रयत्न के फलस्वरूप उन्होंने ऐसा अपरिग्रह व्रत धारण किया जिससे कपड़े या गृह का आश्रय भी त्याज्य हो गया। जब देखो तब महावीर
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