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४० : चार तीर्थंकर ]
क्रम बदलते हैं | अहिंसा का सार्वभौमधर्म उस दीर्घ-तपस्वी में परिप्लुत हो गया था, अब उनके सार्वजनिक जीवन से कितनी हो भव्य आत्माओं में परिवर्तन हो जाने की पूर्ण सम्भावना थी । मगध और विदेह देश का पूर्वकालीन मलीन वायु मण्डल धीरे-धीरे शुद्ध होने लगा था, क्योंकि उसमें उस समय अनेक तपस्वी और विचारक लोक-हित की आकांक्षा से प्रकाश में आने लगे थे । इसी समय दीर्घ तपस्वी भी प्रकाश में आये ।
उपदेशक जीवन
श्रमण भगवान् का ४३ से ७२ वर्ष तक का यह दीर्घ जीवन सार्वजनिक सेवा में व्यतीत होता है । इस समय में उनके द्वारा किये गये मुख्य कार्यों की नामावली इस प्रकार है
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(१) जाति-पांति का तनिक भी भेद रखे बिना हर एक के लिये, शूद्रों के लिये भी, भिक्षु पद और गुरु-पद का रास्ता खोलना । श्रष्ठताका आधार जन्म नहीं बल्कि गुण और गुणों में भी पवित्र जीवन की महत्ता स्थापित करना ।
( २ ) पुरुषों की तरह स्त्रियों के विकास के लिये भी पूरी स्वतन्त्रता और विद्या तथा आचार दोनों में स्त्रियों की पूर्ण योग्यता को मानना । उनके लिये गुरु- पद का आध्यात्मिक मार्ग खोल देना ।
(३) लोक - भाषा में तत्त्वज्ञान और आचार का उपदेश करके केवल विद्वद्गम्य संस्कृत भाषा का मोह घटाना और योग्य अधिकारी के लिये ज्ञान प्राप्ति में भाषा का अन्तराय दूर करना ।
(४) ऐहिक और पारलौकिक सुख के लिये होने वाले यज्ञ आदि कर्मकाण्डों की अपेक्षा संयम तथा तपस्या के स्वावलंबी तथा पुरुषार्थ - प्रधान मार्ग की महत्ता स्थापित करना और अहिंसा-धर्म में प्रीति उत्पन्न करना ।
(५) त्याग और तपस्या के नाम पर रूढ़ शिथिलाचार के स्थान पर सच्चे त्याग और सच्ची तपस्या की प्रतिष्ठा करके भोग की जगह योग के महत्त्व का वायु-मंडल चारों ओर उत्पन्न करना ।
श्रमण भगवान् के शिष्यों के त्यागी और गृहस्थ ये दो भाग थे । उनके त्यागी भिक्षुक शिष्य १४००० और भिक्षुक शिष्याएँ
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