Book Title: Char Tirthankar
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Shobhachad Bharilla, Bhavarmal Singhi, Sagarmal Jain, Dalsukh Malvania
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 64
________________ [ धर्मवीर महावीर और कर्मवीर कृष्ण: ५७ (२) एक बार किसी वन में नदी के किनारे नन्द वगैरह गोप सो रहे थे । उस समय एक प्रचंड अजगर आया जो विद्याधर के पूर्व जन्म में अपने रूप का अभिमान करने के कारण मुनि का शाप मिलने से अभिमान के फलस्वरूप सर्प की इस नीच योनि में जन्मा था । उसने नन्द का पैर ग्रस लिया । जब दूसरे ग्वाल-बालक नन्द का पैर छुड़ाने में असफल हुये तो अन्त में कृष्ण ने आकर अपने पैर से साँप का स्पर्श किया । स्पर्श होने के साथ ही सर्प अपना रूप छोड़कर मूल विद्याधर के सुन्दर रूप में पलट गया । भक्तवत्सल कृष्ण के चरणस्पर्श से उद्धार पाया हुआ यह सुदर्शन नामक विद्याधर कृष्ण की स्तुति करके विद्याधर लोक (२) दीर्घ तपस्वी एक बार 'विचरते - विचरते मार्ग में ग्वालबालकों के मना करने पर भी जानबूझ कर एक ऐसे स्थान में ध्यान धर कर खड़े हो गये जहाँ पूर्वजन्म के मूनिपद के समय क्रोध करके मर जाने के कारण सर्परूप में जन्म लेकर एक दृष्टि विष चण्डकौशिक साँप रहता था और अपने विष से सबको भस्मसात् कर देता था । इस साँप ने इन तपस्वी को भी अपनी दृष्टि विष से भस्म करने का प्रयत्न किया । इस प्रयत्न में निष्फल होने पर उसने अनेक डंक मारे । जब डंक मारने में भी उसे सफलता न मिली तो चण्डकौशिक सर्प का क्रोध कुछ शांत हुआ । इन तपस्वी का सौम्यरूप देखकर, चितवृत्ति शान्त होने पर उसे जातिस्मररण ज्ञान प्राप्त 1 जातकनिदान में बुद्ध के विषय में भी एक ऐसी ही बात लिखी है । उलु-वेला में बुद्ध ने एक बार उलुवेलकाश्यप नामक पाँव सौ शिष्य वाले जटिल की अग्निशाला में रात्रिवास किया । वहाँ एक उग्र आशीविष प्रचण्ड सर्प रहता था । बुद्ध ने उस सर्प को जरा भी चोट पहुँचाये बिना ही निस्तेज कर डालने के लिए ध्यानसमाधि की। सर्प ने भी अपना तेज प्रकट किया । अन्त में बुद्ध के तेज ने सर्प के तेज का पराभव कर दिया। प्रातःकाल बुद्ध ने जटिल को निस्तेज किया हुआ सर्प बताया । यह देखकर जटिल अपने शिष्यों के साथ बुद्ध का शिष्य बन गया । यह ऋद्धिपाद या बुद्ध का प्रतिहार्य अतिशय कहा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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