________________
४८ : चार तीर्थंकर ]
है और तमाम दुनियावी प्रवृत्तियाँ हैं । परन्तु यह प्रवृत्ति चक्र जनसाधारण को नित्य के जीवन क्रम में पदार्थपाठ देने के लिये है । महावीर और बुद्ध के जीवनवृत्तान्त इससे बिलकुल भिन्न प्रकार के हैं । इनमें न भोग की धमाचौकड़ी है और न युद्ध की तैयारी ही । इनमें तो सबसे पहले अपने जीवन के शोधन का हो प्रश्न उपस्थित होता है और उनके अपने जीवन की शुद्धि होने के पश्चात् ही, उसके फलस्वरूप प्रजा को उपयोगी होने की बात है । राम और कृष्ण के जीवन में सत्त्वसंशुद्धि होने पर भी रजोगुण मुख्य रूप से काम करता है और महावीर तथा बुद्ध के जीवन में राजस अंश होने पर भी मुख्य रूप से सत्त्वसंशुद्धि काम करती है । अतएव पहले आदर्श में अन्तर्मुखता होने पर भी मुख्य रूप से बहिर्मुखता प्रतीत होती है और दूसरे में वहिर्मुखता होने पर भी मुख्य रूप से अन्तमुखता का प्रतिभास होता है । इसी बात को यदि दूसरे शब्दों में कहें तो यह कह सकते हैं कि एक आदर्श कर्म चक्र का है और दूसरा धर्म चक्र का है । इन दोनों विभिन्न आदर्शों के अनुसार ही इन महापुरुषों के संप्रदाय स्थापित हुए हैं । उनका साहित्य भी उसी प्रकार निर्मित हुआ है और प्रचार में आया है । उनके अनुयायीवर्ग की भावनाएँ भी इस आदर्श के अनुसार गढ़ी गई हैं और उनके मत्थे मढ़े हुए तत्त्वज्ञान में इसी प्रवृत्ति निवृत्ति के चक्र को लक्ष्य करके सारा तंत्र संगठित किया गया है । उक्त चारों ही महान् पुरुषों की मूर्तियाँ देखिये, उनकी पूजा के प्रकारों पर नजर डालिये या उनके मंदिरों की रचना तथा स्थापत्य का विचार कीजिये, तो भी उनमें इस प्रवृत्ति चक्र और निवृत्ति चक्र की भिन्नता साफ दिखाई देगी । उक्त चार महान् पुरुषों में से यदि बुद्ध को अलग कर दें तो सामान्यतया यह कह सकते हैं कि बाकी के तीनों पुरुषों की पूजा, उनके सम्प्रदाय तथा उनका अनुयायीवर्ग भारतवर्ष में ही विद्यमान हैं; जब कि बुद्ध की पूजा, उनका सम्प्रदाय तथा अनुयायीवर्ग एशिया - व्यापी बना है । राम और कृष्ण के आदर्शों का प्रचारक-वर्ग पुरोहित होने के कारण गृहस्थ है जब कि महावीर और बुद्ध के आदर्शों का प्रचारक-वर्ग गृहस्थ नहीं, त्यागी है। राम और कृष्ण के उपासकों में हजारों संन्यासी हैं, फिर भी वह संस्था महावीर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org