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४६ : चार तीर्थंकर ]
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से जो संस्कार रूढ़ हो चुके हों, उन्हें एकाध प्रयत्न से, थोड़े से समय में बदल देना संभव नहीं । इस प्रकार अलौकिक देवमहिमा, दैवी चमत्कार और देवपूजा की भावना के संस्कार प्रजा के मानस में से एकदम न निकल सके थे । इन्हीं संस्कारों के कारण ब्राह्मणसंस्कृति ने यद्यपि राम और कृष्ण जैसे मनुष्यों को आदर्श के रूप में उपस्थित करके उनकी पूजा-प्रतिष्ठा शुरू की, तथापि प्रजा की मनोवृत्ति ऐसी न बन सकी थी कि वह दैवीभाव के सिवाय और कहीं संतुष्ट हो सके । इस कारण ब्राह्मण संस्कृति के तत्कालीन अगुवा विद्वानों ने, यद्यपि राम और कृष्ण को एक मनुष्य के रूप में चित्रित किया, वर्णित किया, तो भी उनके आन्तरिक और बाह्य जीवन के साथ अदृश्य देवो कार्य का सम्बन्ध भी जोड़ दिया । इसी प्रकार महावीर और बुद्ध आदि के उपासकों ने उन्हें शुद्ध मनुष्य के स्वरूप में ही चित्रित किया, फिर भी उनके जीवन के किसी न किसी भाग के साथ अलौकिक दैवी -सम्बन्ध भी जोड़ दिया । ब्राह्मण-संस्कृति आत्मतत्त्व को एक और अखण्ड मानती है अतः उसने राम और कृष्ण के जीवन का ऐसा चित्रण किया जो अपने मन्तव्य से मेल रखने वाला और साथ ही स्थूल लोगों की देवी पूजा की भावना को भी सन्तुष्ट करने वाला हो । उसने परमात्मा विष्णु के ही राम और कृष्ण के रूप में अवतार लेने का वर्णन किया । परन्तु श्रमण संस्कृति आत्मभेद को स्वीकार करती है और कर्मवादी है, अत; उसने अपने तत्त्वज्ञान के अनुरूप ही अपने उपास्य देवों का वर्णन किया और जनता की दैवीपूजा की आकांक्षा मिटाने के लिये अनुचर और भक्तों के रूप में देवों का सम्बन्ध महावीर और बुद्ध आदि के साथ जोड़ दिया । इस प्रकार दोनों संस्कृतियों का अन्तर स्पष्ट है । एक में मनुष्यपूजा का प्रवेश हो जाने पर भी दिव्य अंश ही मनुष्य के रूप में अवतरित होता है अर्थात् आदर्श मनुष्य अलौकिक दिव्य शक्ति का प्रतिनिधि बनता है और दूसरी संस्कृति में मनुष्य अपने सद्गुण- प्राप्ति के लिये किये गये प्रयत्न से स्वयमेव देव बनता है और जनता में माने जाने वाले देव उस आदर्श मनुष्य के सेवक मात्र हैं और उसके भक्त या अनुचर बनकर उसके पीछेपीछे फिरते हैं ।
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