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३२ : चार तीर्थकर]
कि कृष्ण का संपूर्ण जीवन व्यवहार-पूर्ण है। संसार में रहने पर भी उससे अलिप्त रहने का बोध उनके जीवन में प्राप्त होता है। नेमिनाथ और कृष्ण में आर्यसंस्कृति के दो आदर्श उपस्थित होते हैं। ___ आर्यसंस्कृति में हीनयान और महायान ऐसे दो आदर्श हैं। हीनयान आदर्श अपने में ही परिसमाप्त है। अपने कल्याण के साथ आनुषंगिक रूप से दूसरे का कल्याण होता हो तो भले ही हो, परन्तु मुख्यतया सारा प्रयत्न स्वकल्याण के लिये है और होना चाहिये ऐसी हीनयान की मान्यता है। जब कि महायान का आदर्श सबके कल्याण को प्रथम स्थान देता है, जैनों ने हीनयान वृत्ति को अधिक पसंद किया है ऐसा प्रतीत होता है। ब्राह्मण लोगों ने महायान के आदर्श को भी स्वीकृत किया है। कृष्ण के जीवन में सुदामा का प्रसंग आता है । वैभव के बीच भी वह अलिप्त रहता है । समरांगण में भी वह तटस्थ रूप से रहता है।
उक्त दोनों आदर्शों को पृथक् कर देने से हमारी संस्कृति ने काफी मात्रा में हानि उठाई है। ब्राह्मणों ने और जैनों ने एक दूसरों के महापुरुषों के विषय में कितना कम जाना है ? हीनयान और महायान के आदर्श पृथक् ही रह गये यह अच्छा नहीं हुआ। भारतीय संस्कृति के संपूर्ण रूप को समझने की इच्छा हो तो नेमिनाथ और कृष्ण दोनों के विषय में हमारी जानकारी होना जरूरी है। रसवृत्ति, बुद्धि और तत्त्वज्ञान की दृष्टि से यदि हम कृष्ण का परिचय प्राप्त न करें तो नेमिनाथ को भी हम ठीक नहीं जान सकते । कृष्ण के भक्त जो महायानी हैं उनके लिये नेमिनाथ के जीवन में से बहुत कुछ सीखने योग्य है । कृष्ण का नाम लेकर वे अपनी राजस और तामस वृत्ति को पुष्ट कर रहे हैं। उन्हें चाहिए कि वे नेमिनाथ और राजीमती के जीवन में से त्याग और तपस्या सीखें। इसी तरह नेमिनाथ के भक्त भी यदि व्यवहारकुशल होना चाहते हो तो उन्हें कृष्ण के जीवन में से बहत कुछ सीखना होगा। जैन आचार्यों ने भी कृष्ण-कथा लिखी है, उनके पिता वसूदेव की भी कथा लिखी है। यह अत्यन्त रसपूर्ण है। कृष्ण के जीवन के वास्तविक अंशों को नेमिनाथ के जीवन के साथ जोड़कर हम
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