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२० : चार तीर्थंकर ] *निवृत्तिधर्म में ढालने का प्रयत्न जरा भी छिपा रहने वाला नहीं है,
परन्तु हेमचन्द्राचार्य का प्रयत्न तो इससे भी बढ़ा-चढ़ा और निराला है।
हेमचन्द्र भी जिनसेन की तरह ही भरत द्वारा ब्राह्मण वर्ण की स्थापना, आर्य-वेदों की रचना वगैरह सब कराते हैं, परन्तु उन्होंने अपने वर्णन में जो कौशल दिखाया है वह बुद्धि और कल्पनापूर्ण होते हुए भी पीछे के विकृत निवृत्तिधर्म की साक्षी देने वाला है। हेमचन्द्र के कथन के अनुसार भरत ने एक श्रावक-वर्ग स्थापित किया और उस वर्ग से उसने कहा कि तुम्हें कामकाज या धन्धा वगैरह नहीं करना, खेती-बारी, व्यापार या नौकरी या राज्य आदि किसी प्रपञ्च में नहीं पड़ना, तुम सब राज्य के भोजनगृह में खाते रहो, हमेशा पठन-पाठन में लीन रहो और नित्यप्रति"जितो भवान् वर्धते भीतस्तस्मात् मा हन मा हन" यह मन्त्र मुझको सुनाया करो । भरत का स्थापित किया हुआ यह श्रावकवर्ग उसकी योजना के अनुसार उसके भोजनगृह में जीमता और कुछ भी कामकाज न करके उसके रचे हुए वेदों का पाठ करता एवं भरत के द्वारा रचित उपर्युक्त उपदेश-मन्त्र उनको ही नित्य प्रति सुनाता । परन्तु हेमचन्द्र का आगे दिया हुआ वर्णन इससे भी ज्यादा आकर्षक है। वे कहते हैं कि भरत का स्थापित किया हआ श्रावकवर्ग ही 'माहन, माहन' शब्द बोलने के कारण ब्राह्मण नाम से प्रसिद्ध हो गया । कोई यह न समझे कि हेमचन्द्र का यह श्रावकवर्ग काम धंधा छोड़ने वाला सिर्फ शास्त्रपाठी ही था। इस वर्ग के स्त्रियाँ और घरबार भी थे। खाना, पीना आदि सब पोषण राज्य और आम प्रजा की तरफ से चलने के कारण उस वर्ग के लोगों को बच्चे पैदा करके उनके पोषण की चिन्ता नहीं करनी पड़ती थी। हेमचन्द्र के कथनानुसार तो यह वर्ग अपने अच्छे-अच्छे बालक साधुवर्ग को अर्पण करता था, जो बालक साधुओं के पास में दीक्षा लेते थे, और इस श्रावकवर्ग में से भी अनेक व्यक्ति विरक्त होकर खुद दीक्षा लेते थे।
ऊपर दिये हुए संक्षिप्त वर्णन से किसी भी समझदार व्यक्ति के लिए यह समझना मुश्किल नहीं होगा कि आचार्य हेमचन्द्र ने भरत
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