Book Title: Char Tirthankar
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Shobhachad Bharilla, Bhavarmal Singhi, Sagarmal Jain, Dalsukh Malvania
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 18
________________ ११ : भगवान् ऋषभदेव और उनका परिवार ] आदि नीति को प्रवृत्त किया और लोगों को जीवन-धर्म और समाजधर्म सिखाया । ३ - जिन काम-धन्धों के बिना उस समय वैयक्तिक और सामाजिक जीवन शक्य नहीं था और आज भी जो शक्य नहीं हो सकता वे सारे काम भगवान् ने लोगों को सिखाये । उस वक्त की सूझ और परिस्थिति के हिसाब से भगवान् ने लोगों को खेती द्वारा अनाज पैदा करने, अनाज पकाने, उसके लिए आवश्यकतानुसार बर्तन बनाने, रहने के लिए मकान तैयार करने, कपड़ा तैयार करने, हजामत बनाने और दूसरे जीवनोपयोगी शिल्प की शिक्षा दी । ४ - पुत्र जब योग्य उम्र में पहुँच गया तब उसको उत्तरदायित्व पूर्वक घर और राज्य का कारबार चलाने की शिक्षा देने के बाद ही साधकजीवन स्वीकार किया । ५ - साधक जीवन में उन्होंने अपना मनोयोग पूरा का पूरा आत्मशोधन की तरफ ही लगा दिया और आध्यात्मिक पूर्णता सिद्ध की। इन घटनाओं का उल्लेख दिगंबराचार्य जिनसेन और श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्र ने किया है । असंगत घटनाओं का प्रसंगत समर्थन - जिनसेन विक्रम की नवीं शताब्दी में तथा हेमचन्द्र विक्रम की बारहवीं शताब्दी में हुए । जब इन दो आचार्यों और दूसरे उनके पूर्ववर्ती या उत्तरवर्ती आचार्यों ने ऋषभ का जीवन लिखना शुरू किया होगा तब उनके मानसिक संस्कार और ऋषभ के जीवन की घटना के बीच आसमान - जमीन जितना अन्तर पड़ गया था। सभी चरित्र - लेखक जैन आचार्यों के मन में जैन धर्म के स्वरूप के सम्बन्ध में एक ही छाप थी और वह सिर्फ निवृत्तिधर्म की । हर एक आचार्य यह मानने का आदी था कि जन्म से मृत्यु पर्यन्त निवृत्ति-अनगार धर्म और आध्यात्मिक साधना ही स्वाभाविक है । उसमें इससे भिन्न कुछ भी करना पड़े तो वह वस्तुतः कर्तव्य नहीं है - सिर्फ अपवाद रूप में ही करना पड़ता है । इस खयाल के कारण उन आचार्यों को स्वतंत्र रूप से धर्म का उपदेश देना हो तो भिन्न हो रीति सं देना पड़ता । आजकल जिस तरह हमको साधु जवाब देते हैं उसी तरह उस वक्त भी ये आचार्य लोग हमारे निम्न प्रश्नों का जवाब इसी तरह से देते थे । हमारे वयप्राप्त लड़के-लड़कियों का विवाह करने या गृह-त्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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