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[चार तीर्थंकर : १० कुल-परम्परागत जैनर्मियों के सामने उपस्थित हुआ। धर्म के एक अंश की अथवा एक नय को पूर्ण धर्म या पूर्ण अनेकान्त मानने की भूल में से जो व्यवस्था उत्पन्न हुई वह भी भूलों से भरी हुई और बिना मेल की रही। इसीलिए पिछले दो-तीन हजार वर्ष के जैन-धर्म के निवृत्ति-प्रधान स्वरूप में सामाजिक जीवन की दृष्टि से अधूरापन
और कई विकृतियाँ भी दिखलाई देती हैं। ऋषभ का जीवन ही स्वाभाविक धर्म का प्रवर्तक है
सारी जैन-परम्परा भगवान् ऋषभदेव को वर्तमान युग के निर्माता आदिपुरुष के रूप में जानती है। उनको वह मार्गदर्शक, कर्मयोगी एवं पूर्णपुरुष के रूप में पूजती है। भगवान् ऋषभदेव का चरित्र दिगम्बर-श्वेताम्बर साहित्य में अथवा ब्राह्मण साहित्य में जैसा मिलता है वह जैन-परंपरा की उक्त मान्यता की ही पूरी-पूरी पुष्टि करता है। कारण अगर भगवान् ऋषभदेव कर्मयोगी और पूर्णपुरुष हों तो उनका जीवन भी समग्र दृष्टि से अथवा सामाजिक सुव्यवस्था की दृष्टि से पूर्ण ही होना चाहिए, अन्यथा वे पूरी समाज रचना के निर्माता कहे ही नहीं जा सकते । हमने ऋषभदेव के जीवन में जो अनेक घटनाएँ सुनी हैं और जो आज तक के निवृत्तिप्रधान जैनधर्म के स्वरूप की दृष्टि से बहुत संगत नहीं मालूम होती और इसीलिए जिन घटनाओं का समर्थन खींचतानपूर्वक आचार्यों को करना पड़ा है वे सारी घटनाएँ जीवन-क्रम में स्वाभाविक ही थीं और किसी भी विचारवान् समाज के जीवन में स्वाभाविक ही हो सकती हैं। निवृत्ति की दृष्टि से ऋषभ के जीवन को प्रसंगत घटनाएँ___ यहाँ कुछ घटनाओं का उल्लेख करके उन पर विचार करना प्रासंगिक मालूम होता है । १-भगवान् ऋषभदेव ने विवाह संबंध किया। उस वक्त की चालू प्रथाओं के हिसाब से सगी बहन सुमंगला के साथ विवाह करने के बाद दूसरी एक सुनन्दा नामक कन्या के साथ विवाह किया, जो कि अपने जन्मसिद्ध साथी की मृत्यु से हतोत्साह और चिन्तित होकर विधवा नहीं तो अनाथ तो हो ही गई थी। २-भगवान् ने प्रजा-शासन का काम हाथ में लेकर साम, दण्ड
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