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चक्रदत्तः।
[ ज्वरा
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wwwwwwwwwww भयजन्य तथा काम, क्रोध, शोक और थकावटसे उत्पन्नज्वरमें
वमनावस्थामाह। लंघन न करना चाहिये । साम (आमयुक्त) दोष आमाशयमें पहुँच अनिको नष्ट कर रसादिवाही मार्गोको बन्द करता हुआ सद्यो भुक्तस्य वा जाते ज्वरे सन्तर्पणोत्थिते । ज्वर त्पन्न करता है, अतः लंघन करना चाहिये । लंघन वमनं वमनार्हस्य शस्तमित्याह वाग्भटः ॥ १४ ॥ अव्यवस्थित ( न्यूनाधिक्यको प्राप्त ) दोष तथा अग्निको
कफप्रधानानुक्लिष्टान्दोषानामाशयस्थितान् । स्वस्थान तथा समान मानमें प्राप्त करता और आमका पाचन,
बुद्ध्वा ज्वरकरान्काले वम्यानां वमनैहरेत् ॥१५॥ ज्वरका नाश, आग्निकी दीप्ति, भोजनकी अभिलाषा तथा भोजनमें माचि उत्पन्न करता और शरीरको हलका बनाता है। पर भोजन करनेके अनन्तर ही आये हुए तथा अधिक भोजन लंघन इतना ही कराना चाहिये कि जिससे बलका अधिक करनेसे आये हुए बरमें वमनयोग्य रोगियोंको वमन कराना ह्रास न हो, क्योंकि आरोग्यका आश्रय बल ही है और आरो- | हितकर है । यदि ज्वर-कारक दोष फफप्रधान, आमाशयमें ग्यप्राप्तिके लिये ही चिकित्सा है ॥५-८॥
स्थित तथा वढ़े हुए (हल्लासादियुक्त) हों, तो उन्हें कफवृ
द्धिके समय अर्थात् प्रातःकाल वमनयोग्य रोगियोंको वमन लंघननिषेधः।
कराकर निकलवा देना चाहिये ॥ १४ ॥ १५॥ तत्तु मारतक्षुत्तृष्णामुखशोषभ्रमान्विते ।
* अनुचितवमनदोषाः। कार्य न बाले वृद्धे च न गर्भिण्यां न दुर्बले ॥९॥ बातज्वरवालेको तथा भूख, प्यास, मुखशाष ब भ्रमसे| अनुपस्थितदोषाणां वमनं तरुणे ज्वरे । पीडित तथा बालक, वृद्ध व गर्भिणीको लंघन न कराना हृद्रोगं श्वासमानाहं मोहं च कुरुते भृशम् ॥१६॥ चाहिये ॥९॥
नबीन उवरमें भी यदि दो दोष उक्लिष्ट ( हल्लासादियुक्त )
न हों तो वमन कराना, हृदयमें दर्द, श्वास, अफरा तथा सम्यग्लंघितलक्षणम् ।
मूर्छाका हेतु हो जाता है ॥ १६ ॥ वातमूत्रपुरीषाणां विसंगै गात्रलाघवे ।।
जलनियमः। हृदयोद्गारकण्ठास्यशुद्धौ तन्द्राक्लमे गते ॥१०॥ स्वेदे जाते रुचौ चापि क्षुत्पिपासासहोदये। ।
तृप्यते सलिलं चोष्णं दद्याद्वातकफज्वरे । कृतं लंघनमादेश्यन्निय॑थे चान्तरात्मनि ॥११॥ ।
मधोत्थे पैत्तिके वाथ शीतलं तिक्तकैः शृतम् ॥१७॥
दीपनं पाचनं चैव ज्वरघ्नमुभयं च तत। अपानवायु, मूत्र तथा मलका भलीभांति निःसरण हो,।
स्रोतसां शोधनं बल्यं रुचिस्वेदप्रदं शिवम् ॥१८॥ शरीर हलका हो, हृदय हलका हो, डकार साफ आवे, कण्ठमें |
वातकफज्वरमें प्यासकी शान्तिके लिये गरम गरम जल कफका संसर्ग न हो, मुखकी विरसता नष्ट हो गयी हो, तन्द्रा,
पिलाना चाहिये तथा मद्य पीनेसे व पित्तसे उत्पन्न ज्वरमें तथा ग्लानि दूर हो गयी हो, पसीना निकलता हो, भोजनमें
तिक्तरस युक्त ओषधियोंके साथ औटानेके अनन्तर छान, रुचि हो, भख तथा प्यास रोकनेकी शक्ति न रही हो और मन
ठण्डा कर देना चाहिये ॥ १७ ॥ इस प्रकार प्रयुक्त जल अग्निप्रसन्न हो तो समझना चाहिये कि लंघन ठीक होगया॥१०॥११॥
दीपक, आमपाचक, ज्वरनाशक, छिदशोधक, वलवर्धक, अतिलंधितदोषाः।
| साचिंकारक और पसीना लानेव ला और कल्याणकर
होता है ॥१८॥ पर्वभेदोऽङ्गमर्दश्च कासः शोषो मुखस्य च ।
षडङ्गजलम् । क्षुत्प्रणाशोऽरुचिस्तृष्णा दौर्बल्यं श्रोत्रनेत्रयोः॥१२॥ मनसः संभ्रमोऽभीक्ष्णमूर्ध्ववातस्तमो हृदि ।
मुस्तपर्पटकोशीरचन्दनोदीच्यनागरैः। देहाग्निबलहानिश्च लंघनेऽतिकृते भवेत् ॥ १३ ॥
शृतशीतं जलं दद्यात्पिपासाज्वरशान्तये ॥ १९ ॥ अति लंघन करनेसे सन्धि तथा शरीरमें पीडा, खांसी, पडा, खश, लाल चन्दन, सुगन्धवाला तथा सोंठ डाल
पिपासायुक्त ज्वरकी शान्तिके लिये नागरमोथा, पित्तपा. मुखका सूखना, भूखका नाश, अरुचि, प्यास, कान तथा नेत्रोम |
नि तथा नत्राम औटाकर, ठण्ढा किया जल देना चाहिये ॥१९॥ निर्बलता (स्वविषयग्रहणासामर्थ्य) मनकी अनवस्थितता,आधिक। डकारका आना, बेहोशी तथा शरीर, आनि व बलकी क्षीणता १ वमनके योग्य तथा अयोग्य इसी ग्रन्थमें आगे धमनाधि. होती है ॥ १२॥१३॥
कारमें बतावेंगे, अतः वहांसे जानना।