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बृहत्कल्पसूत्रभाष्य : एक सांस्कृतिक अध्ययन
मान्यता है कि वीर निर्वाण के बाद श्रुत का क्रमशः ह्रास होते होते ६८३ वर्ष के बाद कोई अंगधर या पूर्वधर आचार्य रहा ही नहीं । अतः वे अंग और पूर्व के अंशधर आचार्यों की परम्परा में होने वाले पुष्पदन्त और भूतबलिकृत षट्खण्डागम तथा आचार्य गुणधर प्रणीत कषायपाहुड ( कषायप्राभृत) को ही आगम मानते हैं क्योंकि उनके मतानुसार मूल आगम ग्रन्थ क्रमशः विलुप्त हो गये हैं।
आगमों में चौबीसवें जैन तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर के उपदेशों को संकलित कर शब्दबद्ध किया गया है। आगम ग्रन्थों की रचना दो प्रकार के लोगों ने की है - गणधर और स्थविर प्रथम वर्ग में आचारांग आदि बारह अंग शामिल किये जाते हैं जिनकी रचना गणधरों यानि महावीर के प्रधान शिष्यों ने की है। द्वितीय वर्ग में शेष सभी आगम आते हैं और उनकी रचना स्थविरों यानि अन्य वरिष्ठ आचार्यों ने की है। गणधरों द्वारा रचित ग्रन्थ अंगप्रविष्ट और स्थविरों द्वारा रचित ग्रन्थ अंगबाह्य आगम कहलाते हैं। अतः आचारांग आदि बारह अंगों को अंगप्रविष्ट और शेष सभी ग्रन्थों को अंगबाह्य आगम कहा जाता है ।
एक बार उत्तर भारत में एक लम्बा दुष्काल पड़ा था जो तीर्थंकर महावीर के निर्वाण के एक सौ साठ वर्ष पश्चात् (३६० ईसा पूर्व) समाप्त हुआ । दिगम्बर सम्प्रदाय के लोगों का मानना है कि इस दुर्भिक्ष काल में जैन संघ चतुर्दशपूर्वधर आचार्य भद्रबाहु प्रथम तत्कालीन मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त (३२१ से २९८ ईसा पूर्व)
साथ दक्षिण की ओर प्रस्थान कर गये। इसके विपरीत श्वेताम्बर धर्मावलम्बियों का मत है कि भद्रबाहु दुर्भिक्ष काल में नेपाल चले गये। इसी दुर्भिक्ष के बाद आगम ग्रन्थों को संकलित करने का प्रयास किया गया क्योंकि कालक्रम से स्मृति का ह्रास होने से आगम विलुप्त हो रहे थे । इसीलिए दुर्भिक्ष के तुरन्त बाद जैन श्रमण संघ पाटलिपुत्र में एकत्र हुआ और दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग को छोड़ शेष ग्यारह अंगों को संग्रहीत कर लिया गया। उस समय दृष्टिवाद का ज्ञान केवल भद्रबाहु को था जो नेपाल में तपस्या में लीन होने से श्रमणसंघ के सम्मेलन में उपस्थित न हो सके थे। अतः श्रमणसंघ ने स्थूलभद्र और अन्य श्रमणों को दृष्टिवाद की वाचना ग्रहण करने के लिए भद्रबाहु के पास नेपाल भेजा। उनमें केवल स्थूलभद्र ही दृष्टिवाद ग्रहण करने में समर्थ हुए और वह उन्हीं तक सुरक्षित भी रहा । भद्रबाहु स्थूलभद्र को केवल दस पूर्व ही अर्थसहित पढ़ाये, शेष चार बिना अर्थ के ही बताये। उपर्युक्त संगोष्ठी के बावजूद आगम साहित्य का ह्रास क्रमशः होता ही गया । अतएव वीरनिर्वाण के लगभग ८४० वर्ष बाद (४७३ ई.) आचार्य स्कन्दिल ने मथुरा में और लगभग इसी समय नागार्जुन ने वलभी में आगमों के उद्धार का एक