Book Title: Bruhat Kalpsutra Bhashya Ek Sanskritik Adhyayan
Author(s): Mahendrapratap Sinh
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 10
________________ अध्याय- १ प्रस्तावना 'बृहत्कल्पसूत्र' जैनाचार विषयक एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसकी रचना भद्रबाहु प्रथम ने की है। यह दो सौ पचास प्राकृत सूत्रों में निबद्ध है। इस पर संघदासगणि ने ६४९० श्लोक - प्रमाण प्राकृत भाष्य लिखा है । लघुभाष्य अभिहित इस भाष्य पर अज्ञानतामा एक महाभाष्य भी लिखा गया है जो सम्प्रति अप्रकाशित है। बाद में मलयगिरि ने इस पर एक अपूर्ण संस्कृत वृत्ति लिखी । अपूर्ण संस्कृत वृत्ति को तपागच्छ के आचार्य क्षेमकीर्ति ने विक्रम संवत् १३३२ (१२७५ ई.) में पूरा किया। सम्पूर्ण ग्रन्थ छः भागों में मुनि श्री चतुरविजय एवं मुनि श्री पुण्यविजय द्वारा सम्पादित और श्री जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, द्वारा १९३३ से १९४४ ई. प्रकाशित है। बृहत्कल्पसूत्र और जैन आगम अंग साहित्य का जैन धर्म में वही स्थान है जो बौद्ध धर्म में त्रिपिटक साहित्य का और हिन्दू धर्म में वैदिक साहित्य का है। इसके अन्तर्गत निम्न ४५ ग्रन्थ शामिल किये जाते हैं- आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृत्दशा, अनुत्तरौपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकश्रुत एवं दृष्टिवाद नामक बारह अंग; औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, निरयावलिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा नामक बारह उपांग; उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवैकालिक और पिण्डनिर्युक्ति नामक चार मूलसूत्र; दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार, निशीथ, महानिशीथ और जीतकल्प नामक छः छेदसूत्र; नन्दी और अनुयोगद्वार नामक दो चूलिकासूत्र; और चतुःशरण, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, भक्तपरिज्ञा, तन्दुलवैचारिक, संस्तारक, गच्छाचार, गणिविद्या, देवेन्द्रस्तव और मरणसमाधि नामक दस प्रकीर्णक । दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग को छोड़ आज ये सभी ग्रन्थ उपलब्ध हैं और अर्धमागधी प्राकृत में रचित हैं। आगम ग्रन्थों की प्रस्तुत सूची केवल श्वेताम्बर (मूर्तिपूजक) धर्मावलम्बियों को मान्य है। स्थानकवासी केवल ३२ आगमों को मानते हैं । दिगम्बर सम्प्रदाय की

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