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दस
आचार्य भिभु ने सोचा-कहा१. आचार्य भिक्षु के संगठन का केन्द्र बिन्दु आज्ञा है। उनकी भाषा में
आज्ञा की आराधना संयम की आराधना है और उसकी विराधना संयम की विराधना है। उनके संगठन का शक्ति-स्रोत है आचार । आचार शुद्ध होता है तो विचार स्वयं शुद्ध हो जाते हैं। विचारों में
आग्रह या अपवित्रता तभी आती है, जब आचार शुद्ध नहीं होता। २. आचार्य भिक्षु का सूत्र है-आचारवान् से मिलो, अनाचारी से दूर
रहो। ३. श्रद्धा या मान्यता मिले तो साथ रहो, जिनसे वह न मिले उन्हें साथ
रखकर संगठन को दुर्बल मत बनाओ। ४. एक ध्येय, एक विचार, एक आचार और एक आचार्य-यह है
संक्षेप में आचार्य भिक्षु के संगठन का आंतरिक स्वरूप । ५. जीव जीता है, यह अहिंसा या दया नहीं है। कोई मरता है, वह हिंसा नहीं होती। मारने की प्रवृत्ति हिंसा है और मारने की प्रवृत्ति
का संयम करना अहिंसा है। ६. सब जीवों को अपने समान समझो। सब जीवों के प्रति इसी गज __और माप से काम लो। ७. बहुतों के हित के लिए थोड़ों के हित को कुचल देना उतना ही
दोषपूर्ण है जितना कि थोड़ों के हित के लिए बहुतों को कुचलना । ८. अहिंसा का अंकन जीवन या मरण से नहीं होता। उसकी अभिव्यक्ति
हृदय की पवित्रता से होती है । ९. शुद्ध साध्य का साधन अशुद्ध नहीं हो सकता और शुद्ध साधन का
साध्य अशुद्ध नहीं हो सकता। १०. देव, गुरु और धर्म-ये तीनों अनमोल हैं । इन्हें धन से खरीदा नहीं
जा सकता। ११. धन से धर्म नहीं होता। १२. धर्म के साधन दो ही हैं-संवर और निर्जरा या त्याग और
तपस्या। १३. धर्म और अधर्म का मिश्रण मत करो। १४. बड़ों के लिए छोटों की घात करना पुण्य नहीं है । १५. गृहस्थ और साधु का मोक्षधर्म एक है । १६ अहिंसा और दया सर्वथा एक है । १७. आवश्यक हिंसा अहिंसा नहीं है। १८. लौकिक और आध्यात्मिक धर्म एक नहीं है ।