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धीरे-धीरे शरीर शिथिल होता गया। उचित अवसर देखकर भाद्रव शुक्ला द्वादशी को तिविहार संथारा ग्रहण कर लिया। संथारे का वृत्तान्त फैलते ही जनमेदिनी अन्तिम दर्शनों के लिए उमड़ पड़ी। सारा गांव दर्शनार्थियों से संकुल हो गया। सर्वत्र जयजयकार होने लगा। लोग इस अलबेले योगी मुनीन्द्र की विविध प्रकार से स्तवना करने लगे। स्वामीजी समभाव में स्थित थे। अपने महाव्रतों, समिति-गुप्तियों की आलोचना कर वे निर्मल हो गए। सभी से क्षमायाचना कर उन्होंने स्वयं को निःशल्य बना लिया।
आप संथारे में आत्म-समाधि में तल्लीन थे । अचानक आपने चार बातें कहीं-(१) जाओ, संत आ रहे हैं। (२) साध्वियां आ रही हैं। (३) गांव में जाकर वैराग्य की वृद्धि हो वैसा उपक्रम करो। चौथी वात सुनाई नहीं दी । कुछ ही समय पश्चात् साधु आ गए, साध्वियां भी आ पहुंची। लोग तथा वहां उपस्थित मुनिगण आश्चर्यचकित थे। अनुमान किया गया कि स्वामीजी को अवधिज्ञान हुआ हो।
भाद्रव शुक्ला त्रयोदशी के डेढ़ प्रहर दिन अवशिष्ट रहने पर आपने सात प्रहर के संथारे में महाप्रयाण कर दिया। एक युगान्तरकारी दिव्य व्यक्तित्व का अवसान हो गया। आपने चवालीस वर्षों तक शुद्ध चारित्र की परिपालना की। उस समय आपकी अवस्था ७७ वर्ष की थी और संघ में २१ साधु और २७ साध्वियां विद्यमान थीं।
-मुनि दुलहराज
आचार्य भिक्षु से संबंधित महत्त्वपूर्ण वर्ष जन्म-१७८३ आषाढ़ शुक्ला १३-कंटालिया द्रव्यदीक्षा-१८०८ मार्गशीर्ष कृष्णा १२-बगड़ी बोधि प्राप्ति-१८१५-राजनगर भावदीक्षा-१८१७ आषाढ़ी पूर्णिमा केलवा स्वर्गवास-१८६० भाद्रव शुक्ला त्रयोदशी-सिरियारी आयुष्य विवरण गृहस्थ-२५ वर्ष द्रव्यदीक्षा-९ वर्ष तेरापंथ के आचार्य-४३ वर्ष सर्व आयु-७७ वर्ष