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आठ
था ।' आचार्य भिक्षु बोले- मैं जानता हूं, तुम क्या कैसे पूछना चाहते थे । यदि मैं तत्काल कह देता कि घोड़े के चार पैर होते हैं तो तुम्हारा अगला प्रश्न होता कि ' कनखजूरे' के कितने पैर होते है ? और यदि मैं तत्काल नहीं बता पाता तो तुम होहल्ला कर कह उठते - अरे भीखनजी ! प्रश्न के उत्तर में इतना विलंब क्यों ?' उसने कहा- धन्य हैं आप । मैं अगला प्रश्न यही पूछने वाला था ।'
आचार्य भिक्षु को अपमानित करने के और भी अनेक प्रसंग आए । परंतु इन सब हरकतों को आचार्य भिक्षु ने सहजरूप से लेकर अपमानित करने वालों को भी अपना अनुयायी बना डाला । 'भिक्खु दृष्टांत' ग्रन्थ में दो सौ से अधिक दृष्टांतों में अनेक प्रसंग संदृब्ध हैं, जिनसे स्वामीजी के जीवन प्रसंगों पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है ।
धर्मोपदेश तथा साहित्य सृजन के द्वारा आपने अपनी अनूठी धर्मक्रांति को आगे बढ़ाया । आपने अपने जीवनकाल में ३६ हजार श्लोक परिमाण के राजस्थानी गद्य-पद्य में अनेक ग्रन्थों की रचना की। उनमें इन्द्रियवादी की चौपई, अनुकंपा की चौपई, व्रताव्रत की चौपई आदि अनेक ग्रन्थ आपकी सूक्ष्म मेधा और तर्क-प्रवणता के साक्ष्य हैं । सारा साहित्य 'भिक्षु ग्रंथ रत्नाकर - भाग १,२ में संगृहीत है ।
आपने तेरापंथ शासन की नींव को मजबूत करने के लिए अनेक मर्यादाओं का निर्माण किया । आपने कहा-तेरापंथ में एक आचार्य, एक विचार और एक आचार की परम्परा रहेगी। भावी आचार्य का मनोनयन पूर्ववर्ती आचार्य करेंगे । विहार, चातुर्मास आदि आचार्य के निर्देशानुसार होंगे । आचार्य के कार्य में कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकेगा । कोई अपना चेला - चेली नहीं बना सकेगा, आदि-आदि ।
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आपने अपने उत्तराधिकारी के रूप में मुनि भारीमलजी का मनोनयन किया । उनको इस रूप में पाकर सारा संघ हर्षोल्लसित हुआ । युवाचार्य भारीमलजी अत्यंत विनम्र, पापभीरु, संघनिष्ठ और अर्हत् वाणी के प्रति पूर्ण समर्पित थ । उनकी सहज ऋजुता, मृदुता और विद्वत्ता से संघ प्रभावित था ।
स्वामीजी के शासन काल में उन सहित १०५ व्यक्तियों ने दीक्षा ग्रहण की। उनमें ४९ साधु तथा ५६ साध्वियां थीं ।
आचार्य भिक्षु का अंतिम चातुर्मास सिरियारी गांव में हुआ । उस समय वहां उनके अनुयायियों के सैकड़ों घर थे । उन्होंने कच्ची हाट (दुकान) में चतुर्मास किया । अतिसार के रोग से शरीर आक्रांत हो गया । उपचार चला परन्तु रोग उपशांत नहीं हुआ । भाद्रव मास का शुक्ल पक्ष प्रारम्भ हुआ ! रोग कभी उभरता, कभी शांत होता । उपचार चालू था । लंघन और उपवास का क्रम चलता रहा ।