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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
जब आसक्ति, लोभ या राग के रूप में पक्ष उपस्थित होता है, तो द्वेष या घृणा के रूप में प्रतिपक्ष भी उपस्थित हो जाता है। पक्ष और प्रतिपक्ष की यह उपस्थिति आतंरिकसंघर्ष का कारण होती है। समत्वयोग राग और द्वेष के द्वन्द्व से ऊपर उठाकर वीतरागता की ओर ले जाता है। वह आन्तरिक-सन्तुलन है। व्यक्ति के लिए यह आन्तरिकसन्तुलन ही प्रमुख है। आन्तरिक-सन्तुलन की उपस्थिति में बाह्य जागतिक-विक्षोभ विचलित नहीं कर सकते हैं।
जब व्यक्ति आन्तरिक-सन्तुलन से युक्त होता है, तो उसके आचार-विचार और व्यवहार में भी वह सन्तुलन प्रकट हो जाता है। उसका कोई भी व्यवहार या आचार बाह्य असन्तुलन का कारण नहीं बनता है। आचार और विचार हमारे मन के बाह्य प्रकटन हैं, व्यक्ति के मानस का बाह्य-जगत् में प्रतिबिम्ब हैं। जिसमें आन्तरिक-सन्तुलन या समत्व है, उसके आचार और विचार भी समत्वपूर्ण होते हैं। इतना ही नहीं, वह विश्व व्यवहार में एक सांग-सन्तुलन स्थापित करने के लिए भी प्रयत्नशील होता है, उसका सन्तुलित व्यक्तित्व विश्व-व्यवहार को प्रभावित भी करता है एवं उसके द्वारा सामाजिक-जीवन का निर्माण भी हो सकता है। फिर भी, सामाजिक-जीवन में ऐसा व्यक्तित्व एकमात्र कारक नहीं होता, अतः उसके प्रयास सदैव ही सफल हों, यह अनिवार्य नहीं है। सामाजिक-समत्व की संस्थापना समत्वयोग का साध्य तो है, लेकिन उसकी सिद्धि वैयक्तिक-समत्व पर नहीं, वरन् समाज के सभी सदस्यों के सामूहिक प्रयत्नों पर निर्भर है। फिर भी, समत्व योगी के व्यवहार से न तो सामाजिक-संघर्ष उत्पन्न होता है और न बाह्य-संघर्षो, क्षुब्धताओं और कठिनाइयों से वह अपने मानसको विचलित होने देता है। समत्वयोग का मूल केन्द्र आन्तरिक-संतुलन या समत्व है, जो कि राग और द्वेष के प्रहाण से उपलब्ध होता है।
समत्व-योग भारतीय-साधना का केन्द्रीय-तत्त्व है, लेकिन इस समत्व की उपलब्धि कैसे हो सकती है, यह विचारणीय है। सर्वप्रथम तो जैन, बौद्ध एवं गीता के आचार-दर्शन समत्व की उपलब्धि के लिए त्रिविध साधना-पथ का प्रतिपादन करते हैं । चेतना के ज्ञान, भाव और संकल्प-पक्ष को समत्व से युक्त या सम्यक् बनाने हेतु जहाँ जैन-दर्शन सम्यक्ज्ञान, सम्यक्-दर्शन और सम्यक्-चारित्र का प्रतिपादन करता है, वहीं बौद्ध-दर्शन प्रज्ञा, शील और समाधि का और गीता ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग का प्रतिपादन करती है। केवल इतना ही नहीं, अपितु इन आचार-दर्शनों ने हमारे व्यावहारिक और सामाजिकजीवन की समता के लिए भी कुछ दिशा-निर्देशक सूत्र प्रस्तुत किए हैं। हमारे व्यावहारिक -जीवन की विषमताएँ तीन हैं - 1. आसक्ति 2. आग्रह और 3. अधिकार-भावना। यही वैयक्तिक जीवन की विषमताएँ सामाजिक-जीवन में वर्ग-विद्वेष शोषकवृत्ति और धार्मिक एवं राजनीतिक-मतान्धता को जन्म देती है और परिणामस्वरूप हिंसा, युद्ध और वर्ग-संघर्ष
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