Book Title: Bhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Author(s): Jagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
Publisher: Vishvavidyalay Prakashan
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अन्योक्तिविलासः सरसः ( पलति पल्यते वा, पिल गतौ + वलच्, वेशन्तः पल्वलं चाल्पसर:-इत्यमरः ), जले = वारिणि, कथं वर्तताम् = कथा रीत्या निवसेत् इत्यर्थः । इति कथय त्वमेव इति शेष: ।
भावार्थ-प्रारम्भसे ही मानससरोवरके, पूर्ण विकसित कमलपंक्तियोंके गिरते हुए परागसे सुगन्धित जलमें जिसने सारा जीवन बिताया, वही हंसकुलनायक आज एकत्रित मेंढकोंकी टर्र-टर्र कोलाहलसे पूर्ण पोखरेके जलमें कैसे रह सकता है, तुम्ही कहो।
टिप्पणी-चक्रवर्ती सम्राट्की छत्रछायामें रहकर यौवनके अनुपम ऐश्वर्यका भोग करनेके अनन्तर निराश्रित हुए कविमूर्धन्यकी यह उक्ति, धनोन्मादसे विवेकहीन हुए उस व्यक्तिके प्रति है, जो इन्हें भी साधारण पण्डितोंको श्रेणीमें समझता है ।
‘रे ! यह सम्बोधन स्पष्ट ही कविप्रयुक्त फटकारका सूचक है। इस पद्य में यह भी ध्वनित होता है कि अलौकिक पाण्डित्य भले ही हो, पर उसका किंचित् भी गर्व न होना चाहिए; क्योंकि दैवगतिसे ऐसी भी परिस्थिति आ सकती है जैसे कि मानसके सुरभित परागपूर्ण जलमें जीवन व्यतीत करनेवाले मरालकुलनायकको अनेक भेकाकुल पोखरेके गन्दे जलमें वास करने की कल्पना करनी पड़े। ____इस पद्यमें भी अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार है; क्योंकि अप्रस्तुत राजहंसके द्वारा प्रस्तुत उस महापुरुषकी प्रतीति होती है जो महान् ऐश्वर्यका भोग कर चुका है और अब विपत्तिमें है। साथ ही काव्यलिङ्ग भी अलंकार है; क्योंकि हंसाधीशके पल्वलजलमें न रह सकने रूप अर्थका समर्थन उसके मानसनिवासद्वारा होता है ।
यह पृथ्वी छन्द है--"ज सौ ज स य ला वसुग्रहयतिश्च पृथ्वीगुरुः"- ( वृत्त० ) इसमें ८ और ९ पर विराम होता है ।
पृथ्वी छन्दका प्रयोग भी प्रायः ओजपूर्ण वाक्योंमें ही होता है और समासपूर्ण रचना इसके लिये उपयुक्त होती है ।
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