Book Title: Bhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Author(s): Jagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
Publisher: Vishvavidyalay Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 149
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११६ भामिनी-विलासे होते हैं। उसकी मनोरम आकृतिको देखकर ही आतॊको पीड़ाशान्तिका आश्वासन होते लगता है। इस प्रकार उसका सारा कार्यकलाप ऐसा होता है जो साधारण वाणीसे अवर्णनीय है। ___ इस पद्यमें भेदकातिशयोक्ति अलंकार है । लक्षण-भेदकातिशयोक्तिस्तु तस्यैवान्यत्ववर्णनम् । रस-गंगाधर में भी यह पद्य अतिशयोक्तिका ही उदाहरण है । वसन्ततिलका छन्द है ॥६७॥ महान् की महत्ता विपत्तिमें और भी निखर उठती हैआपद्गतः किल महाशयचक्रवर्ती विस्तारयत्यकृतपूर्वमुदारभावम् । कालागुरुदहनमध्यगतः समन्तात् लोकोत्तरं परिमलं प्रकटीकरोति ॥६॥ अन्वय-महाशयचक्रवर्ती, आपद्गतः, अकृतपूर्वम् , उदारगुभावं, विस्तारयति, किल, कालागुरुः, दहनमध्यगतः, समन्तात् , लोकोत्तरं, परिमलं, प्रकटीकरोति । शब्दार्थ--महाशयचक्रवर्ती = महापुरुषोंमें भी श्रेष्ठ ( व्यक्ति)। आपद्गतः = विपत्तिग्रस्त होनेपर । किल = निश्चय ही । अकृतपूर्व जैसा पहिले नहीं किया था अर्थात् सम्पन्न अवस्थासे भी अधिक । उदारभावं = उदारताको । विस्तारयति = बढ़ा देता है । कालागुरुः = चन्दन । दहनमध्यगतः = अग्निमें पड़नेपर। समन्तात् = चारों ओर । लोकोत्तरं अलौकिक ( अद्भुत )। परिमलं = सुगन्धको। प्रकटीकरोति = प्रकट करता है। टीका-महान् = विशाल: गम्भीरो वा आशयः = अभिप्रायो येषां ते महाशयाः तेषां चक्रवर्ती सार्बभौमः, ( चक्रे भूमण्डले राजमण्डले वावर्तितुं शीलमस्य; चक्र + / वृतु वर्तने + णिनिः) उदारचेतसां मूर्धन्य इत्यर्थः । आपद्गतः = विपत्तिग्रस्तः सन् । पूर्व कृत इति कृतपूर्वः। तादृशो न For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218