Book Title: Bhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Author(s): Jagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
Publisher: Vishvavidyalay Prakashan
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अन्योक्तिविलासः
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तया यदचनं = पूजनं तस्य पदं = स्थानभूतं । एतादृशं वपुः = शरीरं । सद्यः = तत्क्षणमेव | भालस्य = धूर्जटिललाटस्य यः अनलः = वह्निः तेन यद् भसितजालं - भस्मपुन्जं ( भूतिर्भसित भस्मनि - विश्वः ) तस्य आस्पदं = स्थानम् आपद्यतेऽस्मिन्; "आस्पदं प्रतिष्ठायां ६ | १|४६" सूत्रेण साधु अभूत् ।
भावार्थ- देवताओंके सम्मुख बार-बार अपने बलका अहंकार करके त्रिपुरारिकी ओर बाण साधते हुए कामदेवका, स्वर्गकी अप्सराओंके नयनारविन्दोंकी मालासे शोभित होनेवाला शरीर, तत्काल ही शंकरकी ललाटज्वालासे भस्मीभूत हो गया ।
टिप्पणी- प्रबलपराक्रमी, रूपवान् और गुणवान् व्यक्ति भी महामाओका अपकार करनेकी भावना करे तो स्वयं ही नष्ट हो जाता है । इसी भावको इस अन्योक्ति द्वारा व्यक्त किया है । जब देवताओंके सम्मुख अपने भुजबलकी डींग हाँकनेवाला जगद्विजयी कामदेव भगवान् शंकरको अपने बाणका लक्ष्य बनाने लगा तो क्षणभरमें ही उनकी नेत्रप्रसूत - ज्वालासे भस्म हो गया । तुलना०
अतिमात्रबलेषु चापलं विदधानः कुमतिविनश्यति ।
त्रिपुरद्विषि वीरतां वहन्नवलिप्तः कुसुमायुधो यथा ॥ ( रसगंगाधर ) पुरभिदि, यह शिवजीका विशेषण साभिप्राय है । त्रिभुवनसे अजेय त्रिपुरको जिन्होंने भेदन कर दिया, उनके सामने क्षुद्र पंचशर क्या ठहरता ? यह भाव है । जो कामदेव बड़े दर्पसे शिवजीको वश करने गया था वह स्वयं भस्म हो गया अर्थात् कारण भिन्न था पर कार्य भिन्न ही हो गया इसलिये विषम अलंकार है । पण्डितराजने भी रसगंगांधरमें इस पद्यको विषम अलंकारके ही उदाहरणों में रक्खा है । उनके लक्षणके अनुसार दूसरेको दुःख न होकर अपने को ही दुख होनेसे अननुरूप संसर्ग हो गया अतः विषम अलंकार हुआ । शिखरिणी छन्द है || ७९ ॥
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