Book Title: Bhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Author(s): Jagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
Publisher: Vishvavidyalay Prakashan
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भामिनी-विलासे बिखरी हुई गजमुक्ताओंसे आच्छादित इस भूमिको तो सिंहकी क्रीड़ास्थलीकी सीमा ही समझो।
टिप्पणी-घरकी औरतोंमें गप हाँक लेना एक बात है और विद्वसमाजमें पाण्डित्यपूर्ण प्रवचन करना दूसरी बात । कृष्णसारको सम्बोधित कर यह अन्योक्ति ऐसे ही अल्पज्ञको लक्ष्य करके कही गयी है। प्रकाण्ड विद्वान् जहाँ हों वहाँ पर असम्बद्ध और अनर्गल प्रलाप ऐते ही लगते हैं जैसे कि बड़े-बड़े गजेन्द्रोंके गण्डस्थल फाड़कर सिंहने जहाँ गजमुक्ताओंके ढेर लगा रक्खे हों वहाँ कोई मृग हरिणियोंसे कलोल करने लगे। गुरुगर्वनिमीलिताक्षः इसकी पुष्टि करता है । अत्यन्त अभिमानसे इतना अन्धा (विवेकहीन ) हो गया है कि उसे नहीं सूझता कि मैं कैसे स्थानमें हूँ और यहाँ मुझे क्या करना चाहिये । "क्रीड़ाभूमि की सीमा समझो" का अर्थ है सिंह यहाँ तक घूमता रहता है। इस पद्य से साधारण विद्वान्के प्रति कविका यह भाव स्पष्ट लक्षित होता है कि मेरे प्रकाण्ड पाण्डित्यके सामने तुम्हें दुम दबाकर भागना चाहिये, फिर भी तुम यहाँ अनर्गल प्रलाप करने में लगे हो । कृष्णसार-मृगोंकी विभिन्न जातियाँ होती हैं-- कृष्णसार रुरुन्यकुरङ्क शंबर रौहिषाः गोकर्ण पृषत-एण-ऋश्य रोहिताश्चमरोमृगाः-अमरः । कृष्णसार एक पवित्र मृग माना गया है । धर्मशास्त्रोंमें यह कहा गया है कि जिस देशमें कृष्णसार मृग विचरण करता है वह भूमि पवित्र मानी जाती है। लोकोक्ति तथा अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार है। वसन्ततिलका छन्द है ॥४७॥ विपत्तिमें भी स्वरूपकी हीनता उचित नहींजठरज्वलनज्वलताप्यपगतशत समागतापि पुरः । करिणामरिणा हरिणा हरिणाली हन्यतां नु कथम् ॥४८॥ - अन्वय-करिणाम् , अरिणा, हरिणा, जठरज्वलनज्वलता, अपि, अपगतशङ्क, पुरः समागता, हरिणाली, कथं, नु, हन्यताम् ।
For Private and Personal Use Only