Book Title: Bhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Author(s): Jagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
Publisher: Vishvavidyalay Prakashan
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भामिनी-विलासे टितं = विदारितम् अररपुटं = कपाटयुगलम् येन स एवंभूतः (कपाटमररंतुल्ये—अमरः ) अहं = कीरः । पञ्जरात् = बन्धनगृहात् । यास्यामि = उड्डीय नभःपथं गमिष्यामि इत्यर्थः । एवं । कीरवरे = शुकश्रेष्ठे । मनोरथमयं = लिप्सात्मकं । पीयूषम् = अमृतम् । आस्वादयति = पिबति सति । मनस्येवं विचारयति सति इत्यर्थः। वारणस्य = गजस्य यः करःशुण्डादण्डः तस्य आकार इव आकारः यस्य = गजशुण्डाकृतिरित्यर्थः । फणिनां = सर्पाणां ग्रामणीः = श्रेष्ठः ( ग्रामणी पिते पुंसि श्रेष्ठे ग्रामाधिपे त्रिषु-अमरः ) महान् सर्प इति यावत् अन्तः = पंजराभ्यन्तरे सम्प्रविवेश = प्रविष्टः ।
भावार्थ-"अपने अपने कार्यव्यापारमें आसक्तचित्त होनेसे जब सबलोग मेरे पाससे चले जायेंगे तो चोंचकी नोकसे पिंजरेका द्वार खोलकर मैं भाग चलूंगा" ऐसे मनोरथमय अमृतका आस्वादन ज्योंही शुक कर रहा था कि हाथीकी सूंडके समान विशालकाय सर्प पिंजरेमें घुस आया।
टिप्पणी-"दुःखसे निवृत्ति और सुखकी प्राप्ति" यह जीवमात्रकी कामना होती है, किन्तु एक दुःखसे निवृत्त होनेकी कल्पना करते ही यदि दूसरा उससे भी भयानक दुःख आ पड़े तब तो भगवान् ही रक्षक है। इसी भावको इस पद्य द्वारा व्यक्त किया है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि मनुष्य कितना ही कुछ सोचे; किन्तु होगा वही जो दैवको स्वीकार होगा। बेचारा तोता जो स्वच्छन्द हो आकाशमण्डलमें विचरण करता था भाग्यसे पिंजरेमें बँध गया। वहाँ भी एकान्तकी बाट जोह रहा था कि सब अपने-अपने काममें लग जायेंगे और मेरी ओरसे ध्यान हटा लेंगे तो मैं चोंचकी नोकसे द्वारकी सींक निकालकर भाग चलूंगा ( इससे उसकी अपराधी प्रवृत्ति और बन्धनयोग्यत्व ध्वनित होते हैं ); किन्तु इसी समय पिंजरेके एक छिद्रसे भयानक सर्पने घुस
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