Book Title: Bhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Author(s): Jagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
Publisher: Vishvavidyalay Prakashan
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२०
भामिनी - विलासे
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तव इमां = वक्ष्यमाणां परिपार्टी = पद्धतिम् ( परिपाटनं, परि / पट गतौ + स्वार्थे णि + ङीष् ) । उरीकर्तु = स्वीकर्तुं । कः जनः । पटीयान् = अतिशयेन पटुः । अस्तीतिशेषः । न कोऽपीत्यर्थः । यत् पिष्टः = चूर्णीकृतः घृष्ट इति वा, अपि । पिषतां = चूर्णीकुर्वतां नृणां जनानाम् अपि । परिमलानां सुगन्धानाम् ( मलते धारयति जैनमनांसि इति, परि + // मल धारणे + अच्) । उद्गारैः = आमोदविकिरणैः । पुष्टि = परिपोषं । तनोषि = विस्तारयसि । करोषीत्यर्थः ।
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भावार्थ - हे मलयज ! तुम्हारी इस रीतिको समझने में कौन चतुरता दिखा सकता है, जो कि तुम घिसे जाते हुए भी घिसनेवालोंको अपनी सुमधुर गन्ध पुष्ट ही करते हो ।
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टिप्पणी- - इस अन्योक्ति का भी भाव श्लोक १० की भाँति है । इतना वैशिष्ट्य है कि उसमें भुजंग केवल विषवमन करते हैं, चन्दनको नष्ट करने की चेष्टा नहीं करते; किन्तु इसमें तो घिसनेवाले उसे घिसकर नष्ट ही कर डालना चाहते हैं, तो भी चन्दन अपनी सुगन्धसे उन्हें पुष्ट ही करता है । यह उसकी महिमा है । यहाँ पाटीर यह शब्द लाक्षणिक है पट ( वस्त्र ) -- निर्माताको "पटी" कहते हैं । उसकी तरह अपने गुणों ( तागों अथवा सुगन्धादि ) को जो ईरित करता है = फैलाता है वह पटीर हुआ । मलयाचल भी अपने सौरभमय गुणसे वहाँ के सभी पदार्थोंको सुगन्धित कर देता है अतः लक्षणया उसे भी पटीर कहा है । उसमें उत्पन्न होनेवाला पाटीर अर्थात् चन्दन द्रुम हुआ। तुलना०
किं तेन हेमगिरिणा रजताद्रिणा वा
मन्यामहे
यत्र स्थिता हि तरवस्तरवस्त एव । मलयमेव यदाश्रयेण
कंको निम्बकुटजा अपि चन्दनाः स्युः ॥
काव्यलिङ्ग अलंकार और आर्याछन्द है । लक्षण पूर्ववत् ॥ ११ ॥
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