Book Title: Bhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Author(s): Jagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
Publisher: Vishvavidyalay Prakashan
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अन्योक्तिविलासः
३९ =उत्कृष्टा शोभा ( सुषमा परमा शोभा-अमरः) ताम् अपहरतीति ताम् == वृक्षावलिसौन्दर्यविनाशिनीमित्यर्थः । जगति = संसारे । जीवजातस्य
प्राणिमात्रस्य या आर्तिः = पीडा ( आतिः पीडाधनुःकोटयो:-विश्वः ) जनयन्तीम्-उत्पादयन्तीम् । इमां-परिदृश्यमानां। हिमानी-हिमसंघातं (हिमस्य समूहः हिम + ङीप् + आनुक्, हिमानी हिमसंहतिः-अमरः ) केन गुणेन= कं गुणमभिलक्ष्य वहसि = शिरसा धारयसि । ___ भावार्थ हे हिमालय ! वृक्षोंकी सुन्दर हरियालीको नष्ट करनेवाले, संसारमें प्राणिमात्रको कम्पित करनेवाले इस हिमसमूहको तुमने कौन सा गुण देखकर धारण कर रक्खा है ?
टिप्पणी-गुणज्ञ व्यक्तिका भी कभी-कभी कोई कार्य अविवेकपूर्ण होता है, इसी भावको हिमालयको सम्बोधित कर इस अन्योक्तिमें व्यक्त किया गया है। भवानीतात ! यह सम्बोधन विशेष अर्थ रखता है । भवानी अर्थात् आदिशक्ति जगदम्बिका पार्वतीके पिता होनेपर भी तुममें इतना विवेक नहीं है कि तुम ऐसे सौंदर्य-नाशक और आर्तिदायकको सिरपर धारण किये रहते हो। ऐसा क्यों करते हैं इसका समाधान भी इसी वाक्यांशमें मिल जाता है अर्थात् जब जगज्जननीके तात हो तो जगत्का प्रत्येक पदार्थ चाहे वह गुणी हो या अवगुणी, तुम्हारे द्वारा संरक्षणीय ही है।
यह अन्योक्ति किसी ऐसे सम्पन्नव्यक्तिको भी लक्ष्य करती है जो सफेदपोश खलोंसे घिरा रहता है जिनके कारण सज्जनोंका उसके दरबारमें पहुँचना कठिन रहता है।
विशेषण साभिप्राय है अतः परिकर अलंकार है, व्याजस्तुति नहीं। भवस्य स्त्री तथा हिमानां समूहः इन अर्थों में भव और हिम शब्दोंसे ङोप प्रत्यय "इन्द्रवरुणभवशर्व...." ( ४।१।१९ पा. ) से आनुक् आगम होकर भवानी और हिमानी शब्द बनते हैं। यहां इन दोनोंसे अनुप्रास अलंकार भी है । आर्या छन्द है ॥२४॥
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