Book Title: Bhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Author(s): Jagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
Publisher: Vishvavidyalay Prakashan
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७४
भामिनी-विलासे न वारयामः = प्रतिषेधं न कुर्मः । वयमिति शेषः । तु = किन्तु । एतत् न युक्तम् = इदं न समीचीनम् । यत् । अस्याः = गङ्गायाः । पुरः = अग्रे । तरङ्गभङ्गान् = ऊर्मिविशेषान् ( तरङ्ग:-तरति/तृ प्लवनसंतरणयोः + अङ्गुच् (उणा०), भंगः-भज्यते, भजो आमर्दने+घञ् ) प्रकटीकरोषि = दर्शयसि ।
भावार्थ-हे वर्षानदी ! पवित्र जाह्नवीके जलमें यदि तुम अपनेको लीन कर रही हो तो हम तुम्हें रोकते नहीं, किन्तु यह उचित नहीं कि तुम उसके सामने अपनी तरंगोंको विशेष रूपसे उछालो ।
टिप्पणी क्षुद्रजन यदि महान् लोगोंके सम्पर्क में आना चाहें तो उचित ही है, किन्तु यदि वहां जाकर महज्जनोंके गुण ग्रहण करना छोड़ उनके सामने अपनेको ही महान समझकर इतराने लगें तो यह मूर्खताका ही परिचायक है। इसी भावको कविने वर्षानदीकी इस अन्योक्ति द्वारा व्यक्त किया है। वर्षाकालमें सारी गन्दगीको लेकर बहती हुई क्षुद्रनदी जब गंगामें मिलती है तो गंगा उसे आत्मसात् कर लेती हैं और उसका गन्दा जल भी गंगाजलकी पवित्रताको प्राप्त हो जाता है। किन्तु यदि वह गंगाके स्वच्छ और शान्त जलमें अपनी वेगपूर्ण लहरोंको उछालने लगे तो इससे उसकी नीचता ह प्रकट होगी; क्योंकि उसका वह वेग वर्षाऋतु तक ही सीमित है। उसके बाद तो उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जायगा और जाह्नवीका प्रवाह भयानक ग्रीष्ममें भी अबाध गतिसे चलता ही रहेगा।
इस पद्य में कविने क्षुद्रोंके स्वभावका सुन्दर दिग्दर्शन कराया है। तुलना०-क्षुद्रनदी भरि चलि उतराई । जस थोरे धन खल बौराई ।।
( तुलसी०), 'भंगस्तरंग मिर्वा' इस अमरकोशके अनुसार तरंग और भंग दोनों पदोंको पर्यायवाची मानकर एकत्र प्रयोगमें पुनरुक्ति समझते हुए कुछ
For Private and Personal Use Only