Book Title: Bhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Author(s): Jagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
Publisher: Vishvavidyalay Prakashan
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भामिनी-विलासे
घञ्, कोटं राति, कोट + /रा दाने + कः )। गरलस्य = वान्तविषस्य या ज्वाला = अचिः ताम् । यद्वा गरलान्येव ज्वालेव दाहकत्वात् ज्वाला, ताम् । उज्झन्ती = वमन्ती । द्विजिह्वाः = सर्पाः तेषाम् अवली = पंक्तिः ( द्विजिह्वौ सर्पसूचको-अमरः )। ते = तव । सर्वानेव = निखिलानपि । सुन्दरान् = रम्यान् । गुणान् = सौरम्यादीन् निगिरति खलु = भक्षयत्येवेत्यर्थः । ___ भावार्थ हे श्रीखण्ड ! तुम्हारी सुगन्धिमत्ता त्रिभुवनमें प्रसिद्ध है, शीतलता अलौकिक है, कीर्ति दसों दिशाओंके अन्तिम छोरतक पहुँची हैं, किन्तु फिर भी यह एक बात सुनलो। तुम्हारे कोटरोंमें (खोखलोंमें ) रहकर भयानक विष उगलते हुए ये सर्पोके झुण्ड तुम्हारे इन सारे सुन्दर गुणोंको निगल जाते हैं।
टिप्पणी-कोई कितना ही गुणी क्यों न हो, यदि वह खलोंसे घिरा है तो निश्चय ही उसके सारे गुण बेकार हो जाते हैं, इसी भावको इस चन्दनान्योक्तिसे व्यक्त किया है। चन्दनकी सुगन्धिमत्ता और शीतलताको कौन नहीं जानता, इसलिये सभीको उसकी चाह रहती है। परन्तु कोई भी उसे तब तक प्राप्त नहीं कर सकता जब तक कि उसमें लिपटे हुए विषधरोंको नष्ट न करे। इसी प्रकार जो व्यक्ति स्वभावतः शान्त और सज्जन है उसके गुणोंकी ख्याति भी सर्वत्र ही रहती है; किन्तु यदि खल उसे घेरे रहते हैं तो उसके पास तक पहुँचकर उसकी सज्जनतासे लाभ उठाना असम्भव ही है। अतः वह सारी सज्जनता या गुणशालिता वेकार हो जाती है। ___इस पद्य में द्विजिह्व पद स्पष्टतः द्वयर्थक है जो सर्प और पिशुन दोनोंका बोध कराता है। इस प्रकार सौरभ्यका मनोहरता और शैत्यका जड़ता अर्थ मानकर सज्जनके पक्षमें भी अर्थ लग जाता है। अत: श्लेष अलंकार हो सकता है । लुप्तोपमा तो है ही। शार्दूलविक्रीडित छन्द है ( लक्षण दे० श्लो०३)॥ १६ ॥
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