Book Title: Bhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Author(s): Jagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
Publisher: Vishvavidyalay Prakashan
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अन्योक्तिविलासः आश्रय दिये रहते हो, बड़े ही उदारचरित हो। इस स्तुतिसे यह व्यक्त होता है कि प्रतिक्षण खलोंसे ही घिरे रहते हो, अतः सज्जन तो तुम्हारे पास फटक भी नहीं पाते । ऐसे तुम्हारी क्या महत्ता कहैं। आर्या-- छन्द है ॥१९॥ स्वरूपकी रक्षा होनी चाहिये
अपनीतपरिमलान्तरकथे पदं न्यस्य देवतरुकुसुमे । पुष्पान्तरेऽपि गन्तुं वान्छसि चेद् भ्रमर धन्योऽसि ॥२०॥
अन्वय-भ्रमर ! अपनीतपरिमलान्तरकथे, देवतरुकुसुमे, पदं, न्यस्य, पुष्पान्तरे, अपि, गन्तुं, वाञ्छसि, चेत् , धन्यः, असि । __शब्दार्थ-भ्रमर = हे भौंरे ! अपनीत = दूर कर दिया है, परिमलान्तरकथे = दूसरे सुगन्धोंकी कथाको जिसने ऐसे । देवतरुकुसुमे = कल्पवृक्षके फूलमें । पदं न्यस्य = पैर रखकर । पुष्पान्तरेऽपि = दूसरे फूलोंमें भी । गन्तुं वाञ्छसि चेत् = जानेकी इच्छा करते हो तो। धन्योऽसि = तुम धन्य हो ।
टीका हे भ्रमर ! अपनीता = दूरीकृता परिमलान्तराणां= इतरामोदानां कथा = वार्ता येन तस्मिन् सर्वसुगन्धातिशयिनि इतिभावः । देवतरोः = कल्पवृक्षस्य कुसुमे-पुष्पे । पदं = चरणं । न्यस्य = निधाय । पुष्पान्तरे = तद्भिन्नकुसुमे इत्यर्थः । अपि । गन्तुं = यातुं । वाञ्छसि = ईहसे, चेत् तहि धन्यः = श्लाघनीयचरितः असि। .
भावार्थ-हे भ्रमर ! अन्य सुगन्धित पदार्थोंकी बात भी जिसके सामने ठहर नहीं सकती, ऐसे कल्पवृक्षके पुष्पोंपर पैर जमाकर भी यदि तुम दूसरे पुष्पोंसे भी रस लेना चाहते हो तो धन्य हो ।
टिप्पणी-भ्रमरको सम्बोधित कर प्रयुक्त इस अन्योक्ति द्वारा कविने उन्हें फटकारा है जो, या तो महान् व्यक्तियोंके सत्सङ्गको छोड़कर क्षुद्र
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