Book Title: Bhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Author(s): Jagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
Publisher: Vishvavidyalay Prakashan
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अन्योक्तिविलासः
११
मा कार्षीरित्यर्थः । यतः । मकरन्देन
पुष्परसेन ( मकरन्दः पुष्परस :
अमर: ) तुन्दिला: = पूर्णा: ( अतिशयितं तुन्दमस्य, तुन्द + इलच् ) तेषां, परागपरिपूर्णानामित्यर्थः । अरविन्दानां = कमलानाम् । अयं = भ्रमरः । महामान्यः = अतीवादरणीयः । अस्तीतिशेषः ।
भावार्थ - हे कुटज ! मधुसञ्चय करता हुआ भौंरा यदि भाग्यवशात् कभी तुम्हारे पास आ जाय तो उसका तिरस्कार न करना, क्योंकि परागोंसे भरे हुए कमलपुष्प उसे अत्यन्त आदरसे रस ग्रहण करनेके लिये आमन्त्रित करते हैं ।
टिप्पणी- - सब दिन सबके एक से नहीं रहते, किसी भाग्यशाली पुरुषके साथ रहकर अनुपम ऐश्वर्यका भोग करनेवाला व्यक्ति भी समय के फेरसे किसी क्षुद्रकी शरण जानेको विवश हो सकता है । ऐसी स्थिति में उसकी विवशता देखकर क्षुद्र व्यक्ति यदि उसकी अवज्ञा करे तो यह उसकी मूर्खता है । उसे तो गर्वके साथ उसका सम्मान करना चाहिये कि ऐसा आदरणीय व्यक्ति भाग्यसे मेरे पास आया है । इसी भावको इस अन्योक्तिद्वारा व्यक्त किया गया है । यहाँ मधुकर और महामान्य ये शब्द अपना विशेष महत्त्व रखते हैं । वह मधुकर है, उसकी विशेषता है कि वह मधुरका ही संग्रह करता है, कटुपदार्थोंका नहीं । अतः उससे किसीका अपकार होने की आशंका नहीं और उसकी सज्जनता असन्दिग्ध है । वह परागपूर्ण कमलों से मान्य ही नहीं महामान्य है, इसलिये उसकी अवहेलना करना मूर्खता क्या, महामूर्खता होगी ।
इस पद्य में अवहेलना न करना रूप अर्थ का समर्थन उसके महामान्यहोने से किया गया है अतः काव्यलिङ्ग अलंकार है ।
यह आर्याछन्द है । आर्या मात्रिक छन्द है, इसमें वर्णोंकी गणना न होकर मात्राओं की गणना होती है । प्रथम-तृतीयपादों में १२।१२, द्वितीयमें १८ और चतुर्थपाद में १५ मात्राएँ होती हैं ।
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