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बौद्ध और जैनदर्शन के विविध आयाम न तेन अरियो होति येन पाणानि हिंसति । अहिंसा सब्बपाणानं अरियो ति वुच्चति ।
जो प्राणियों की हिंसा करता है, वह आर्य नहीं है। सर्व प्रति अहिंसक भावना रखनेवाला ही आर्य है।
पाणं न हानेय्य न च घातयेय्य, न चानुजञा हननं परेसं । . .... सब्बेसु भूतेषु निधाय दण्डं, ये थावरा ये च तसन्ति लोके ।।.
संसारमें जो स्थावर और जंगम प्राणी हैं, न उनके प्राण की हत्या करे, न मरवाये और न तो उन्हें मारने की आज्ञा दे । दंडवृत्ति का त्याग करें । यहाँ गौतम बुद्ध ने प्राणियों के साथ साथ 'ये थावरा' - कह कर अन्य प्राकृतिक तत्त्वों की भी हानि न करने का स्पष्ट आदेश दिया है ।१२।
हिंसक परंपरा का प्रतिरोध करने के लिए अ-वैर का मार्ग भी द्योतित किया. - 'नहि वेरेन वरं सम्मति इध कुदाचन, · अवेरेन ही सम्मतो वेरं, एसो धम्मो सनंतनो""। इसके संदर्भ में दीर्घायु की कथा भी इतनी ही मननीय है। मनको विशुद्धि : नैतिक पर्यावरण : ..
लेकिन गौतम बुद्ध के उपदेशवचनों में प्राकृतिक पर्यावरण की अपेक्षा नैतिक पर्यावरण को ही बहुत ज्यादा महत्त्व दिया गया है । दोनों परस्पर अवलंबित हैं । अहिंसा, करुणा, मैत्री जैसी भावनाओं के विकास से ही प्राकृतिक तत्त्वों के प्रति भी हृदय संवेदनशील बन सकेगा । तथा.... दुःखनिरोध और दुःखनिरोधगामिनी प्रतिपद और अमृतगामी निर्वाण के लिए उन्होंने नैतिक शुद्धि - मन और वृत्तियों की परिशुद्धि का ही महत्त्व कीया है। इससे नैतिक पर्यावरण की सुरक्षा होती है। इसका संबंध कुशल-अकुशल कर्मों के साथ व्यक्ति के संस्कार, नैतिक एवं सामाजिक नियमों एवं आदर्शो से है, जो एक नैतिक पर्यावरण का निर्माण करते हैं। और इसे बनाये रखने का दायित्व व्यक्ति और समाज दोनों पर है। नैतिकता की कसोटी है - संयम, त्याग, पवित्रता, सत्य के प्रति आस्था, प्रामाणिकता तथा प्राणिमात्र के प्रति सद्भावना ।
वर्तमान समय में नैतिक मूल्यों एवं उन्नत आदर्शों में से आस्था नष्ट हो गई है। आज सबका ध्यान अपने हित की संरक्षा की और ही केन्द्रित हो गया है । सेवा, त्याग, परोपकार आदि भावनायें - जो परिवार और समाज की नींव के समान हैं - वे लुप्त हो गई हैं, नींव ही हील गई है। इसलिए आज आवश्यकता है बुद्ध