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राग और न चाहने को द्वेष कहते हैं। जब हम किसी के प्रति राग-द्वेष करते हैं, तो उसके साथ जुड़ जाते हैं, उससे Attachment (आसक्ति ) हो जाता है और उसकी छाप हमारे चित्त पर अंकित हो जाती है।
हम प्रतिक्षण राग-द्वेष करते रहते हैं किसी को पसंद या किसी को नापसंद करते हैं। Pull-Push करते रहते हैं, उससे Attached होते रहते हैं। शास्त्रीय भाषा में कहें तो कर्मबंध करते रहते हैं। इस प्रकार हम प्रतिदिन अगणित कर्म बांधते रहते हैं। वे सब अंतःकरण में अंकित होकर संचित होते रहते हैं। परन्तु अभी हमें कोई पूछे कि हमने क्या-क्या पसंद और नापसंद किया, तो उन असंख्य संचित कर्मों, वासनाओं-इच्छाओं के संस्कारों में से हमें मुश्किल से कुछ (दो-चार) याद आयेंगे। इससे यह नहीं समझ लेना चाहिये कि उन सब संस्कारों का छाप-अंकन, चित्र हमारे अन्तःस्थल से समाप्त हो गया है। वस्तुतः वे सब संस्कार इस समय भी अंतःकरण के अज्ञात (अप्रकट) भाग में विद्यमान हैं। इसी अज्ञात या अप्रकट भाग को मनोविज्ञान की भाषा में अवचेतन मन कहते हैं। बोलचाल की भाषा में भीतरी मन या अंतःकरण कहते हैं। इसीलिये कई बार हम जिस बात की नापंसदगी का कोई कारण नहीं जानते हैं तब कहते हैं कि मेरा भीतरी मन यह नहीं मानता है। वह भीतरी मन ही वह मन है जिसमें हमारे संस्कार संचित होते रहते हैं। अभिप्राय यह है कि अंतःकरण में असंख्य संस्कार अंकित व संचित हैं, परन्तु वे अभी ज्ञात मन में नहीं उभर रहे हैं, प्रकट नहीं हो रहे हैं, उदय नहीं हो रहे हैं। यदि वे संस्कार अंतःकरण में अंकित व संचित नहीं होते, तो उनसे संबंधित स्थान व घटना देखते ही या किसी के द्वारा याद दिलाते ही स्मृति पटल पर प्रकट नहीं होते। उनका समय-समय पर प्रकट होना ही यह सूचित करता है कि वे अन्तर में अंकित हैं, संचित हैं, विद्यमान हैं। इस प्रकार जो संस्कार प्रकट नहीं होते हैं, परन्तु अंतःस्थल पर जिनका अस्तित्व है, शास्त्रीय भाषा में उनको कर्मों की सत्ता कहा गया है। जो संस्कार या कर्म प्रकट होते हैं, उन्हें उदय कहा गया है। जो संस्कार किसी के निमित्त से जागृत होकर अर्थात् सत्ता में से खिसककर बाहर प्रकट होते हैं, उदय होते हैं, तो सत्ता से खिसककर उदय में आने की इस प्रक्रिया को उदीरणा कहा जाता है। सीधे शब्दों में संस्कार का अंतस् में अंकित होना ‘बन्ध', अंतस् में स्थित
प्राक्कथन
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