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इसका कारण विचार तरंगों का रेडियो की विद्युत तरंगों से भी अति सूक्ष्म होना तथा द्रुतगतिमान होना है ।
आशय यह है कि विज्ञान - जगत् में तन के समान मन, वचन, वाणी व विचार को भी भौतिक (पौद्गलिक) पदार्थ माना गया है । तन, वचन, मन का जिससे सर्जन होता है, इनकी जिससे उत्पत्ति होती है अर्थात् तन, वचन, मन जिस बीज के फल हैं, उसे जैन दर्शन में कर्म कहा है। यह प्राकृतिक नियम है कि फल वैसा ही होता है जैसा बीज होता है। फल और बीज में जातीय एकता होती है। तन, मन, वाणी परमाणुओं के समुदाय से पुद्गलों के पुंज से बने हैं। अतः पौद्गलिक हैं। इससे इनके बीज कर्म को भी पौद्गलिक मानना ही होगा। जिन पुद्गल परमाणुओं से कर्म रूप बीज लगता है, जैन दर्शन में उन्हें कार्मण वर्गणा कहते हैं। ये कार्मण वर्गणाएँ लोक में सर्वत्र विद्यमान हैं, व्याप्त हैं । इन कार्मण वर्गणाओं का चेतन के साथ बंध कैसे होता हैं, इसे फिल्म के उदाहरण से समझें
प्राणी का अंतःकरण या अंतस्तल एक कैमरे में लगी फिल्म- रील के समान है। इस फिल्म में प्राणी सोचता है, विचारता है, इच्छा करता है, वेदन करता है आदि जो भी प्रवृत्ति या क्रिया करता है, उन सबके चित्र सदैव अंकित होते रहते हैं। फिल्म पर लगे हुए रासायनिक पदार्थ एवं बाहर से पड़ने वाले प्रतिबिंब, इन दोनों के संयोग से ही चित्र का निर्माण होता है। बाहर से वस्तु, घटना का अन्तःकरण पर जैसा प्रतिबिंब पड़ता है, उसी के अनुरूप अन्तःकरण की फिल्म पर चित्र बनता है । प्रतिबिंब जितना प्रकाशमय व स्पष्ट होता है, चित्र भी उतना ही अधिक स्पष्ट प्रकट होता है, उभरता है। अंधेरे में चित्र स्पष्ट नहीं आता है। फिल्म पर पारा आदि जैसा मंद - तीव्र रासायनिक पदार्थ लगा होता है, चित्र उतने ही अधिक व कम काल तक टिकने वाला तथा सादा व रंगीन आता है। इसी प्रकार मन, वचन तथा तन की प्रवृत्ति जैसी होती है, वैसी ही प्रकृति बनती है, जितनी अधिक प्रवृत्ति होती है, प्रकृति उतनी ही प्रगाढ़ व घनीभूत होती है, भीतर के भावों का रस रासायनिक पदार्थों के समान है। अतः रस या कषाय जितना अधिक होता है, प्रकृति उतने ही अधिक काल तक स्थित रहने वाली होती है तथा रस या कषाय के अनुरूप ही प्रकृति शुभ-अशुभ या तीव्र - मंद फल देने वाली होती है ।
प्राक्कथन
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