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१. नई भूमिका : नए संकल्प
मैं दस वर्ष की अवस्था में मुनि बना। मुनि बनने से पूर्व ही परिचय हो गया मुनि तुलसी से। पहले ही दिन जैसे ही मुनि बना, परमपूज्य कालूगणी ने मुझसे कहा-'तुम जाओ और मुनि तुलसी के पास रहो।' 'उनकी भाषा में कहूं तो तुलछू के पास रहो।' उकार प्रधान बोलते थे वे। समझता हूं-उसी समय पूज्य गुरुदेव कालूगणी ने मेरे भाग्य की लिपि अंकित कर दी। ___मैं एक छोटे गांव में जनमा। बहुत ही छोटा गांव, जहां विद्यालय
भी नहीं था। मैंने विद्यार्थी के रूप में कभी विद्यालय का दरवाजा नहीं देखा। मुनि बन गया। पूज्य गुरुदेव (मुनि तुलसी) के संरक्षण में रहने लगा। भोला बालक था। कुछ ऐसा योग था कि मुनि तुलसी ने मुझे अपना लिया, अपना बना लिया, दूरी नहीं रही। यह एक सुयोग था। पतंजलि ने जिसे कहा- 'समापत्ति'। तो समापत्ति हो गई, तादात्म्य हो गया। मुझे नहीं पता था कि मैं बहुत लिख-पढ़ पाऊंगा। उस समय की घटनाएं आपको, सुनाऊं तो बड़ी विचित्र लगेगी। ऐसे प्रश्न पढ़ाते समय मैं पूछता था कि मुनि तुलसी को कहना पड़ता था- 'क्या तुम भी कभी समझ पाओगे? किन्तु जिसे अच्छा गुरु मिल जाता है उसे चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। मैंने कभी अपने जीवन में चिन्ता नहीं की। मुझे क्या करना है, क्या खाना है, कहां रहना है, कहां सोना है, इन सबकी मैंने कभी कोई चिन्ता नहीं की। जब चिन्ता करने वाला कोई दूसरा है तो मैं चिन्ता क्यों करूं? द्वितीय विश्वयुद्ध में जब जर्मनी के वायुयान इंग्लैण्ड पर बमवर्षा कर रहे थे तो एक बुढ़िया निश्चिन्त सो जाती थी। पड़ोसी ने कहा-'हम सब डरते हैं, तुम इतना निश्चिन्त होकर कैसे सो
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