Book Title: Asrava Tribhangi
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Gangwal Dharmik Trust Raipur

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Page 10
________________ श्री-श्रुतमुनि-विरचिता आसव - त्रिभङ्गी संदृष्टि-सहिता पणमिय सुरेंदपूजियपयकमलं वड्डमाणममलगुणं। पचयसत्तावण्णं वोच्छे हं सुणह भवियजणा ।।1।। प्रणम्य सुरेन्द्रपूजितपदकमलं वर्धमानं अमलगुणं। प्रत्ययसप्तपंचाशत् वक्ष्येऽहं शृणुत भव्यजनाः !॥ अर्थ - निर्मलगुणों के धारक तथा इन्द्रों के द्वारा पूजित हैं पद कमल जिनके ऐसे वर्द्धमान स्वामी को नमस्कार कर, सत्तावन आस्रवों को कहूँगा। उन्हें भव्यजन सुनों। मिच्छत्तं अविरमणं कसाय जोगा य आसवा होति। पण बारस पणवीसा पण्णरसा होति तब्भेया ।।2।। मिथ्यात्वमविरमणं कषाया योगश्च आसवा भवन्ति । पंच दादश पंचविंशति: पंचदश भवन्ति तद्भेदाः॥ अर्थ - मिथ्यात्व के पाँच, अविरति के बारह, कषाय के पच्चीस और योग के पन्द्रह इस प्रकार आस्रव के सत्तावन भेद होते हैं। मिच्छोदयेण मिच्छत्तमसद्दहणं तु तच्चअत्थाणं। एयंतं विवरीयं विणयं संसयिदमण्णाणं॥3॥ [1] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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