Book Title: Asrava Tribhangi Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain Publisher: Gangwal Dharmik Trust Raipur View full book textPage 8
________________ * तथा स्त्रीवेद और नपुंसकवेद में आहारद्विक को छोड़कर शेष पचपन आस्रव कहे गये हैं । जो संदृष्टियाँ ग्रंथ में उपलब्ध हैं उनके पहले आम्रव व्युच्छित्ति, पश्चात् आस्रव सद्भाव और अंत में आम्रव अभाव का क्रम दिया गया है जबकिग्रंथ में पहले आसव व्युच्छित्ति का कथन करने के पश्चात् अनास्रव और अंत में आस्रवों का कथन दिया है। आरा से प्राप्त पाण्डुलिपी में गाथा संख्या 11 के पश्चात् 15 दी गई है पश्चात् 12, 13 आदि दी गई। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि जो गाथाओं का क्रम वर्तमान में इस ग्रंथ में उपलब्ध है वह नहीं रहा हो जैसा संदृष्टियों में विषय रखा गया वही गाथाओं में भी रहा हो । विस्तर त्रिभङ्गी की पाण्डुलिपि में आस्रव त्रिभङ्गी का कथन गुणस्थानों में करने केपश्चात् एकगाथा और उपलब्ध है जिसका प्रयोजन स्पष्टनहीं हो सका वह गाथा निम्न प्रकार है - मिच्छकसाओवेदोरदिभयदुगबंधदिगिवीसं । सत्तर सत्तर तेरे तिणतं पंचादिएगंता |! गाथा संख्या 15 का द्वितीय पाठ निम्न प्रकार से प्राप्त है - मिच्छे पण मिच्छत्तं साणे अणचारि मिस्सये सुण्णं । अयदे बिदिय कसाया तसवह वेगुव्वजुगल दसएक्कं ॥ यहाँ " दसएक्कं" पाठविचारणीय है। इस ग्रंथ का कार्य जबलपुर गुरुकुल में रहकर ही सम्पन्न हुआ, गुरुकुल के पुस्तकालय का पूर्णत: उपयोग किया गया । ब्र. जिनेश जी अधिष्ठाता श्री वर्णी दिग. जैन गुरुकुल का हम लोग हृदय से आभार व्यक्त करते है । कार्य के लिए समस्त उपयोगी सामग्री यथा समय उपलब्ध होती रही है । ब्र. राजेन्द्र जैन, पठा के सुझाव भी हमें समय समय पर प्राप्त होते रहे है उनके प्रति भी हम कृतज्ञ है। साथ ही ब्र. त्रिलोक जी को हम लोग नहीं भुला सकते है जो कि समय समय पर मनः प्रसन्नता के निमित्त रहे है । आशा है यह कृति विद्वत्वर्ग के साथ जनोपयोगी भी सिद्ध होगी। प्रूफ सम्बन्धी व अर्थ सम्बन्धी कुछ त्रुटियाँ होना संभव है। अतः श्रुतविज्ञ उन त्रुटियों की ओर हमें इंगित करें । वीर निर्वाण संवत् 2529 Jain Education International [v] For Private & Personal Use Only - ब्र. विनोद जैन - ब्र. अनिल जैन www.jainelibrary.orgPage Navigation
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