Book Title: Asrava Tribhangi
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Gangwal Dharmik Trust Raipur

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Page 14
________________ पंच' चदु सुण्ण सत्त य पण्णर दुग सुण्ण छक्क छक्केक्कं । सुण्णं चदु सगसंखा पच्चयविच्छित्ति णायव्वा ।।11।। पंच चतुः शून्यं सप्त च पंचदश दौ शून्यं षट्कं षट्कैकं एकं। शून्यं चतुः सप्तसंख्या प्रत्ययविच्छित्तिः ज्ञातव्या ॥ अर्थ - प्रथम गुणस्थान से लेकर सयोग केवली गुणस्थान तक क्रमशः पाँच, चार, शून्य, सात, पन्द्रह, दो, शून्य, छह, छह बार एक-एक, एक, शून्य, चार और सात की आस्रव व्युच्छित्ति जानना चाहिए। विशेष - इस गाथा में आया हुआ छह बार एक-एक से नवमें गुणस्थान के छह भागों में एक-एक की व्युच्छित्ति जानना चाहिए। मिच्छे हारदु सासणसम्मे मिच्छत्तपंचकं णत्थि। अण दो मिस्सं कम्मं मिस्से ण चउत्थए सुणह ।।12।। मिथ्यात्वे आहारकदिकं सासादनसम्यक्त्वे मिथ्यात्वपंचकं नास्ति। अनः दे मिश्रे कर्म मिश्रे न चतुर्थे शृणुत॥ अर्थ - मिथ्यात्व गुणस्थान में आहारक काययोग और आहारक मिश्र काययोग, सासादन गुणस्थान में पंच मिथ्यात्व, मिश्र गुणस्थान में अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र, कार्मणकाययोग रूप आम्रवों का अभाव है तथा चतुर्थ गुणस्थान में किसी भी आस्रव का अभाव नहीं होता है। आगे के गुणस्थान संबंधी आम्रव अभावों को सुनों। 1. अत्र केशववर्णिनोक्तगाथा पण चदु सुण्णं णवयं पण्णरस दोण्णि सुण्ण छक्कं च। एक्केकं दस जाव य एवं सुण्णं च चारि सग सुण्णं ।।1।। 2. अनिवृत्तिकरण गुणस्थानस्य षड्भागास्तत्र एकैकस्मिन् भागे एकैक आम्रवो व्युच्छित्ति क्रमेण । 3. अनन्तानुबंधिचतुष्कं 4. औदारिकवैक्रियिकाख्ये मिश्रे। 5]] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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