Book Title: Asrava Tribhangi
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Gangwal Dharmik Trust Raipur

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Page 86
________________ गुणस्थान | आस्रव व्युच्छित्ति आस्रव आस्रव अभाव 9. भाग 2 | 1 गुणस्थानवत] 15 [गुणस्थानवत् 30 [उपर्युक्त 29 + नपुंसकवेद] 31[उपर्युक्त 30+ स्त्रीवेद 9. भाग 3 | 1 गुणस्थानक्त] 14 [गुणस्थानव 9. भाग4 | 1 गुणस्थानव] । | 13 [गुणस्थानक्त] 32 [उपर्युक्त 31+ पुवेद 9. भाग 5 | 1गुणस्थानवत] 12[गुणस्थानवत्] 33 [उपर्युक्त 32 + संज्वलनक्रोध] 9. भाग6 | 1 गुणस्थानक्त्] 11 गुणस्थानवत् 34[उपर्युक्त 33 + संज्वलनमान | 1गुणस्थान 10[गुणस्थानवत्] 10. सूक्ष्य सम्परय संयत 35 [उपर्युक्त 34+ संज्वलनमाया] 11.उपशंत [गुणस्थानक्त] मोह 36 [उपर्युक्त 35 + संज्वलनलोभ] एदे वेदगखइए हारदुओरालमिस्ससंजुत्ता। मिच्छे सासण मिस्से सगगुणठाणव्व णायव्वा ।।58|| एते वेदकक्षायिकयोः आहारद्धिकौदारिकमिश्रसंयुक्ताः । मिथ्यात्वे सासादने मिश्रे स्वकगुणस्थानवज्ज्ञातव्या | अर्थ - वेदक और क्षायिक सम्यग्दर्शन में ऊपर कहे गये पैंतालीस आस्रवों में आहारकद्विक, औदारिकमिश्र काययोग सहित अड़तालीस आस्रव होते हैं। मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र में अपने गुणस्थान के समान आस्रव जानना चाहिए। अर्थात् मिथ्यात्व में पचपन, सासादन में पचास एवं मिश्र में तेतालीस आस्रव होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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