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आसव त्रिभङ्गी
आचार्य श्री श्रुनमुनि
संपादक-अनुवादक ब्र. विनोद जैन, ब्र. अनिल जैन
For Private & Personal use only
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आचार्य श्री श्रुतमुनि
आसव त्रिभङ्गी
अनुवादक-संपादक
ब्र.विनोद जैन "शास्त्री" ब्र.अनिल जैन “शास्त्री"
श्री वर्णी दिगम्बर जैन गुरुकुल
पिसनहारी, जबलपुर
प्रकाशक
गंगवाल धार्मिकट्रस्ट
नयापारा, रायपुर (छत्तीसगढ़)
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कृति
- आस्रव त्रिभङ्गी प्रणेता - आचार्य श्री श्रुतमुनि अनुवादक-संपादक - ब्र.विनोद कुमार जैन "पपौरा"
ब्र. अनिल कुमार जैन "जबलपुर" अक्षर संयोजन - राजेश कोष्टा 47, गढ़ा बाजार, जबलपुर प्रथम संस्करण - 1000 प्रतियाँ
वीर निर्माण संवत् 2529 मूल्य - स्वाध्याय
प्राप्तिस्थल
1. ब्र. विनोद कुमार जैन
श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र पपौरा जी, जिला- टीकमगढ़ (म.प्र.)
2 श्रीसनत जैन
श्री केसरी लाल कस्तूरचंद गंगवाल नयापारा,रायपुर (छ.ग.)
3. ब्र.जिनेश जैन/ब्र. अनिल जैन
श्री वर्णी दिगम्बर जैन गुरुकुल पिसनहारी की मढ़िया, जबलपुर (म.प्र.)
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प्रकाशकीय...
ब्र. विनोद जैन एवं ब्र. अनिल जैन द्वारा अनुवादित कृति “भाव त्रिभङ्गी" का प्रकाशन पूर्व में हमारे ट्रस्ट के द्वारा किया गया था। जिससे साधु वर्ग एवं जनसामान्य (श्रावक)वर्गलाभान्वित हुये। इस वर्ष आपदोनों के द्वारा “आम्रव त्रिभङ्गी" का अनुवाद-सम्पादन किया गया। मुझे जब ज्ञात हुआ तो इस ग्रंथ के प्रकाशन का विचार भी ट्रस्ट के माध्यम से कराने का भाव हुआ फलत: इस कृति का प्रकाशन ट्रस्ट ने भगवान महावीर के2528 वेंनिर्वाण महोत्सव केशुभावसर पर किया।
आदरणीय ब्रह्मचारीद्वय निरन्तर ज्ञानाभ्यास में रत रहते हैं आप दोनों ने अभी तक प्रकृति परिचय का संकलन-सम्पादन सच्चे सुख का मार्गका सम्पादन तथा सिद्धान्तसार, ध्यानोपदेश कोश, भाव-त्रिभङ्गी, परमागमसार, लघुनयचक्र, ध्यानसार, श्रुतस्कंध आदि महत्त्वपूर्ण कृतियों को प्रथम बार अनुवाद किया पुण्योदय से ये समस्त कृतियाँ प्रकाश में आ चुकी हैं, ये आप दोनों के परिश्रम का ही फल है। आप लोगों का यह कार्य सचमुच सराहनीय/प्रशंसनीय है। इसी के साथ ही आप दोनों के द्वारा जैनेन्द्रलघुवृत्ति, ध्यानप्रदीप का अनुवाद तथा धवलापारिभाषिक कोश, सत्संख्या सूत्र की व्याख्या, जीवकाण्ड प्रश्नोत्तरी, जैनसिद्धान्त प्रवेशिका एवं चरणानुयोग प्रवेशिका का संकलन किया गया है। आशा है ये कृतियाँ भी शीघ्र ही प्रकाश में आयेंगी। आप दोनोंइसी तरह श्रुताराधना मेंलगेरहें ऐसी मेरी मनोकामना है।
इस ग्रंथ का प्रकाशन मुख्यत: पूज्य पिताजी श्री कस्तूरचंद गंगवाल एवं माताजी गुलाब बाई गंगवाल की स्मृति में उनकी पुत्र वधु श्रीमती उर्मिला देवी गंगवाल कर रही हैं।
आशा है कि पूर्व की कृति की तरह इस कृति को भी साधुवर्ग एवं विद्वत्वर्ग में ससम्मान उपयोग किया जायेगा ऐसी मनोकामना है...।
-सनतकुमारगंगवाल
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आचार्यश्रुतमुनि
श्री डॉ.ज्योति प्रसादजीने 17 श्रुतमुनियों का निर्देश किया है। पर हमारे अभीष्टआचार्य श्रुतमुनिपरमागमसार, भाव त्रिभङ्गी, आरव त्रिभङ्गी आदिग्रंथों के रचियता हैं। ये श्रुतमुनि मूलसंघ देशीगण पुस्तकगच्छ और कुन्दकुन्द आम्नाय केआचार्य हैं। इनकेअणुव्रतगुरु बालेन्द्रया बालचन्द्रथे।महाव्रतगुरु अभयचन्द्र सिद्धान्तदेव एवं शास्त्रगुरु अभयसूरि और प्रभाचन्द्र थे। आस्रव त्रिभङ्गी केअन्त में अपने गुरु बालचन्द्र का जयघोष निम्न प्रकार किया है:
इदि मग्गणासु जोगो पच्चयभेदो मया समासेण । कहिदी सुदमुणिणा जो भावइ सो जाई अप्पसुहं।। पयकमलजुयलविणमियविणेय जणकयसुप्यमाहप्पो । णिज्जियमयणपहावो सो बालिंदी चिरं जयऊ।।
आरा जैन सिद्धान्त भवन मेंभाव त्रिभङ्गीकी एकताड़पत्रीय प्राचीनप्रति है, जिसमें मुद्रित प्रति की अपेक्षा निम्नलिखित सात गाथाएँ अधिक मिलती हैं। इन गाथाओं पर से ग्रंथ रचियता के समय के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त होती है
अणुवदगुरुबालेंदु महव्वदे अभयचंदसिद्धति। सत्थेऽभयसूरि-पहाचंदा खलु सुयमुणिस्स गुरु।। सिरिमूलसंघदेसिय पुत्थयगच्छ कोंडकुंदमुणिणाहं (?)। परमण इंगलेसबलम्मिजादमुणिपहृद (हाण) स्स! सिद्धन्ताहयचंदस्स य सिस्सो बालचंदमुणिपवरो। सो भवियकुवलयाणं आणंदकरो सया जयऊ। सहागम-परमागम-तक्कागम-निरवसेसवेदी हु। विजिदसयलण्णवादी जयउ चिरं अभयसूरिसिद्धति,
[II]
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णयणिक्खेवपमाणं जाणित्ता विजिदसयलपरसमओ। वरणिवइणिवहवंदियपयपम्मी चारुकित्तिमुणी।। णादणिखिलत्थसत्थो सयलणरिंदेहिं पूजिओ विमलो। जिणमग्गगमणसूरी जयउ चिरं चारुकित्तिमुणी ।। वरसात्तयणिउणो सुदं परओ विरहियपरभाओ। भवियाणं पडिबोहणयरो पहाचंदणाममुणी ॥
इन गाथाओं से स्पष्ट है कि देशीयगण पुस्तकगच्छ इंगलेश्वरबली के आचार्य अभयचन्द्र के शिष्य बालचन्द्रमुनि हुए। इन्होंने अनेक वादियों को पराजित किया था। गाथाओं में आये हुए आचार्यों पर विचार करने से इनके समय का निर्णय किया जा सकता है।
श्रवणवेलगोला के अभिलेखों के अनुसार श्रुतमुनि अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के शिष्य थे। इनके शिष्य प्रभाचन्द्र हुए और उनके प्रिय शिष्य श्रुतकीर्तिदेव हुए। इन श्रुतकीर्तिका स्वर्गवास शक संवत् 1306 (ई. सन् 1384) में हुआ।इनकेशिष्य आदिदेव मुनि हुए। पुस्तकगच्छ केश्रावकों ने एक चैत्यालय का जीर्णोद्धार कराकर उसमें उक्त श्रुतकीर्ति की तथा सुमतिनाथ तीर्थंकर की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित की थीं।
बालचन्द्रमुनि ने श्रुतमुनि को श्रावकधर्मकी दीक्षा दी थी। आस्रव त्रिभङ्गी और परमागमसार में श्रुतमुनिनेइनका स्मरण किया है। श्रुतमुनि की तीन रचनाएँप्राप्त होती हैं:
1. परमागमसार 2. आस्रव त्रिभङ्गी 3. भाव त्रिभङ्गी
[
m]
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सम्पादकीय...
भाव त्रिभङ्गी का कार्य करते समय आस्रव त्रिभङ्गी माणिकचन्द्र ग्रंथमाला से प्रकाशित “भाव संग्रहादि" में देखने को प्राप्त हुई थी। जिसका किसम्पादन और संशोधककार्य श्री पं. पन्नानाल सोनी ने किया है।
दूसरी प्रति ब्र. अनिल जी, आरा के पाण्डुलिपिभण्डार से विस्तर-त्रिभङ्गी आचार्यकनकनन्दि विरचित लाये थे। जिसमें आम्नव त्रिभङ्गी देखने को प्राप्त हुई थी। दोनों प्रतियों की सहायता से यह कार्य प्रारंभ किया था। आरा से प्राप्त पाण्डुलिपिसे कुछ संदृष्टियाँजो किभाव संग्राहाद्रि में प्रकाशित आस्रव त्रिभङ्गी में नही है उनको इस ग्रंथ में समाहित किया है। इस चिन्ह से वे संदृष्टियाँ इसमें प्रकाशित की गई है।इसग्रंथका प्रकाशनअनुवादसहितप्रथम वारकिया जारहा है। यह सब कुछ आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागर जी एवं विद्यागुरुपं. पन्नालाल “साहित्याचार्यजी" केआशीष का हीसुफल हैकिजिससे यह कार्य निर्विघ्नतासेसहज ही सम्पन्न होगया। ग्रंथमेंप्रतिपाद्य:
आचार्यश्री श्रुतमुनि ने आम्रवोंकेसत्तावन भेद बतलाने केपश्चात्क्रमश: गुणस्थान औरमार्गणास्थानोंमेंआम्रवोंकी व्युच्छित्ति, आस्रवसद्भाव और आम्रव अभाव इन तीनोंका विवेचनगाथाओंतथा मूल संदृष्टियोंकेसाथ
किया है। ग्रंथविशेषता:
कर्मकाण्ड में आस्रव मात्र का उल्लेख गुणस्थानों में प्राप्त होता है किन्तु कार्मण स्थानोंमेंसंदृष्टियुक्त विस्तृत विवेचन तथा आम्रव व्युच्छित्ति आम्रव
और आम्रव अभाव, रूप विवेचन अन्यत्र ग्रंथोंमें उपलब्धनहीं होता है। ग्रंथविचारणीयबिन्दु :* गाथासंख्या 43 में पुंवेद में स्त्रीवेद और नपुंसकवेद को छोड़कर शेष सभी
पचपन आम्रव होते हैं। स्त्रीवेद में आहारकद्विक, पुंवेद और नपुंसकवेदको छोड़कर शेष सभी तिरेपन आस्रव होते हैं तथा नपुंसकवेद में स्त्रीवेद, पुंवेद आहारकद्विकको छोड़कर शेष तिरेपन आस्रव होते हैं। यहाँयह विचारणीय है कि'वेदमेंस्त्रीवेद और नपुंसकवेदकेआस्रव का अभाव क्योंबतलाया है? जबकि कर्मकाण्ड में पुंवेद में सत्तावन आम्रवोंका कथन उपलब्ध होता है
[IV]
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*
तथा स्त्रीवेद और नपुंसकवेद में आहारद्विक को छोड़कर शेष पचपन आस्रव कहे गये हैं ।
जो संदृष्टियाँ ग्रंथ में उपलब्ध हैं उनके पहले आम्रव व्युच्छित्ति, पश्चात् आस्रव सद्भाव और अंत में आम्रव अभाव का क्रम दिया गया है जबकिग्रंथ में पहले आसव व्युच्छित्ति का कथन करने के पश्चात् अनास्रव और अंत में आस्रवों का कथन दिया है। आरा से प्राप्त पाण्डुलिपी में गाथा संख्या 11 के पश्चात् 15 दी गई है पश्चात् 12, 13 आदि दी गई। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि जो गाथाओं का क्रम वर्तमान में इस ग्रंथ में उपलब्ध है वह नहीं रहा हो जैसा संदृष्टियों में विषय रखा गया वही गाथाओं में भी रहा हो ।
विस्तर त्रिभङ्गी की पाण्डुलिपि में आस्रव त्रिभङ्गी का कथन गुणस्थानों में करने केपश्चात् एकगाथा और उपलब्ध है जिसका प्रयोजन स्पष्टनहीं हो सका वह गाथा निम्न प्रकार है
-
मिच्छकसाओवेदोरदिभयदुगबंधदिगिवीसं ।
सत्तर सत्तर तेरे तिणतं पंचादिएगंता |!
गाथा संख्या 15 का द्वितीय पाठ निम्न प्रकार से प्राप्त है -
मिच्छे पण मिच्छत्तं साणे अणचारि मिस्सये सुण्णं । अयदे बिदिय कसाया तसवह वेगुव्वजुगल दसएक्कं ॥
यहाँ " दसएक्कं" पाठविचारणीय है।
इस ग्रंथ का कार्य जबलपुर गुरुकुल में रहकर ही सम्पन्न हुआ, गुरुकुल के पुस्तकालय का पूर्णत: उपयोग किया गया । ब्र. जिनेश जी अधिष्ठाता श्री वर्णी दिग. जैन गुरुकुल का हम लोग हृदय से आभार व्यक्त करते है । कार्य के लिए समस्त उपयोगी सामग्री यथा समय उपलब्ध होती रही है । ब्र. राजेन्द्र जैन, पठा के सुझाव भी हमें समय समय पर प्राप्त होते रहे है उनके प्रति भी हम कृतज्ञ है। साथ ही ब्र. त्रिलोक जी को हम लोग नहीं भुला सकते है जो कि समय समय पर मनः प्रसन्नता के निमित्त रहे है ।
आशा है यह कृति विद्वत्वर्ग के साथ जनोपयोगी भी सिद्ध होगी। प्रूफ सम्बन्धी व अर्थ सम्बन्धी कुछ त्रुटियाँ होना संभव है। अतः श्रुतविज्ञ उन त्रुटियों की ओर हमें इंगित करें ।
वीर निर्वाण संवत् 2529
[v]
- ब्र. विनोद जैन
- ब्र. अनिल जैन
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क्र.
विषय
1. मंगलाचरण एवं प्रतिज्ञा वचन
2. आस्रवों के उत्तर भेद
विषयानुक्रमणिका
3. गुणस्थानों में मूल आम्रव 4. गुणस्थानों में काययोग
5. गुणस्थानों में आस्रव व्युच्छित्ति, आस्रव सद्भाव एवं आस्रव अभाव
6. गुणस्थानों में आस्रव त्रिभङ्गी एवं सृदृष्टि (1 अ )
7. गुणस्थानों में योग एवं संदृष्टि (1 ब ) 8. गुणस्थानों में कषाय एवं संदृष्टि (1 स )
9. मध्य मंगलाचरण एवं मार्गणाओं में आस्रव कथन की प्रतिज्ञा
10. पर्याप्त अपर्याप्त जीवों में योग
11. गति मार्गणा में आस्रव त्रिभङ्गी एवं संदृष्टियाँ (2-12)
12. इन्द्रिय एवं काय मार्गणा में आस्रव त्रिभङ्गी एवं संदृष्टियाँ ( 13-20 )
13. योग, वेद, कषाय एवं ज्ञान मार्गणा में आस्रव त्रिभङ्गी एवं संदृष्टियाँ ( 21 - 36 )
14. संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञी एवं आहार मार्गणा में आस्रव त्रिभङ्गी एवं संदृष्टियाँ ( 37-61)
15. ग्रंथ अध्ययन का फल एवं अन्तिम मङ्गलाचरण
गाथा सं.
1
2-8
9
10
22
23
24
25
11-21 5-10
26-34
39-49
पृष्ठ सं.
50-60
1
61-62
1-3
4
4
11-16
17-18
18-19
19
35-38 35-41
20
20-34
42-61
61-87
87-88
Page #10
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श्री-श्रुतमुनि-विरचिता
आसव - त्रिभङ्गी
संदृष्टि-सहिता
पणमिय सुरेंदपूजियपयकमलं वड्डमाणममलगुणं। पचयसत्तावण्णं वोच्छे हं सुणह भवियजणा ।।1।।
प्रणम्य सुरेन्द्रपूजितपदकमलं वर्धमानं अमलगुणं। प्रत्ययसप्तपंचाशत् वक्ष्येऽहं शृणुत भव्यजनाः !॥
अर्थ - निर्मलगुणों के धारक तथा इन्द्रों के द्वारा पूजित हैं पद कमल जिनके ऐसे वर्द्धमान स्वामी को नमस्कार कर, सत्तावन आस्रवों को कहूँगा। उन्हें भव्यजन सुनों।
मिच्छत्तं अविरमणं कसाय जोगा य आसवा होति। पण बारस पणवीसा पण्णरसा होति तब्भेया ।।2।। मिथ्यात्वमविरमणं कषाया योगश्च आसवा भवन्ति । पंच दादश पंचविंशति: पंचदश भवन्ति तद्भेदाः॥
अर्थ - मिथ्यात्व के पाँच, अविरति के बारह, कषाय के पच्चीस और योग के पन्द्रह इस प्रकार आस्रव के सत्तावन भेद होते हैं।
मिच्छोदयेण मिच्छत्तमसद्दहणं तु तच्चअत्थाणं। एयंतं विवरीयं विणयं संसयिदमण्णाणं॥3॥
[1]
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मिथ्यात्वोदयेन मिथ्यात्वमश्रद्धानं तु तत्वार्थानां । एकान्तं विपरीतं विनयं
संशयितमज्ञानम् ॥
अर्थ - मिथ्यात्व कर्म के उदय से मिथ्यादृष्टि जीव पदार्थों का विपरीत श्रद्धान करता है । वह मिथ्यात्व एकांत, विपरीत, वैनयिक, संशय और अज्ञान के भेद से पाँच प्रकार का होता है।
।
छस्सिदिएसुऽविरदी छज्जीवे तह य अविरदी चेव । इंदियपाणासंजम दुदसं होदित्ति णिद्दिट्टं ॥4॥
षट्स्विन्द्रियेष्वविरतिः षड्जीवेषु तथा चाविरतिश्चैव । इन्द्रियप्राणासंयमा व्दादश भवन्तीति निर्दिष्टं ॥
अर्थ
पाँच इन्द्रियों के विषय, छठवाँ मन इस प्रकार इन्द्रिय असंयम के छह भेद, पंच स्थावर तथा त्रस जीवों की हिंसा इस प्रकार प्राणी असंयम के छह भेद, इस प्रकार दो प्रकार की अविरति बारह भेद रूप होती है यह जिनेन्द्र देव के द्वारा कहा है ।
अणमप्पच्चक्खाणं पच्चक्खाणं तहेव संजलणं । कोहो माणो माया लोहो सोलस कसायेदे ||5||
अनमप्रत्याख्यानः प्रत्याख्यान: तथैव संज्वलनः । क्रोधो मानो माया लोभ: षोड़श कषाया एते ॥
--
अर्थ - अनन्तानुबंधी - क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ तथा संज्वलन - क्रोध, मान, माया, लोभ इस प्रकार कषाय के ये सोलह भेद हैं ।
1 अनन्तानुबन्धि ।
-
[2]
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हस्स रदि अरदि सोयं भयं जुगंछा य इत्थिपुंवेयं । संद वेयं च तहा णव एदे णोकसाया य॥6॥ हास्यं रतिः अरति: शोक: भयं जुगुप्सा च स्त्री-पुंवेदौ। षंढ़ो वेदः च तथा नवैते नोकषायाश्च||
अर्थ - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद और नपुंसकवेद ये नौ नोकषाय जानना चाहिए।
मणवयणाण पउत्ती संचासचुभयअणुभयत्थेसु । तण्णामं होदि तदा तेहिं दु जोगा हु तज्जोगा ।।7।।
मनोवचनानां प्रवृत्तिः सत्यासत्योभयानुभयार्थेषु । तन्नाम भवति तदा तैस्तु योगाद्धि तद्योगाः ।। अर्थ - मन और वचन की सत्य, असत्य, उभय और अनुभय रूप पदार्थों में प्रवृत्ति - उनके नामानुसार सत्य मनोयोग, असत्य मनोयोग उभय मनोयोग और अनुभय मनोयोग तथा सत्य, असत्य, उभय और अनुभय रूप वचनयोग कहलाती है।
ओरालं तंमिस्सं वेगुव्वं तस्स मिस्सयं होदि। आहारय तंमिस्सं कम्मइयं कायजोगेदे ||8||
औदारिकं तन्मिभं वैक्रियिकं तस्य मिश्रकं । आहारकं तन्मिनं कार्मणकं काययोगा एते॥ अर्थ - औदारिक, औदारिक मिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र तथा कार्मण काययोग इस प्रकार सात प्रकार का काययोग होता है।
[3]
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मिच्छे खलु मिच्छत्तं अविरमणं देससंजदो 'त्ति हवे। सुहुमो त्ति कसाया पुणु सजोगिपेरंत जोगा हु ॥७॥ मिथ्यात्वे खलु मिथ्यात्वं अविरमणं देशसंयतमिति भवेत् ।
सूक्ष्ममिति कषायाः पुनः सयोगिपर्यन्तं योगा हि ॥ अर्थ - निश्चय से मिथ्यात्व गुणस्थान में मिथ्यात्व, देशसंयम अर्थात् पंचम गुणस्थान तक अविरति, सूक्ष्मसांपराय अर्थात् दशमें गुणस्थान तक कषाय तथा सयोग केवली गुणस्थान तक योग रूप आस्रव पाया जाता है।
मिच्छदुगविरदठाणे मिस्सदुकम्मइयकायजोगा य। छढे हारदु केवलिणाहे ओरालमिस्सकम्मइया।।10।। मिथ्यात्वद्धिकाविरतस्थाने मिश्रदिककार्मणकाययोगाश्च । षष्ठे आहारदिकं केवलिनाथे औदारिकमिश्रकार्मणाः ॥
अर्थ - मिथ्यात्व, सासादन और अविरत नामक चतुर्थ गुणस्थान में औदारिक काययोग, औदारिक मिश्र काययोग, वैक्रियिक काययोग, वैक्रियिक मिश्र काययोग, छठवें गुणस्थान में आहारक काययोग और आहारक मिश्र काययोग तथा (सयोग) केवली भगवान के औदारिक मिश्र और कार्मण काययोग पाया जाता है।
1. इति यावदर्थे। 2. चदुपञ्चगो मिच्छे बंधो पढ़मे णंतरतिगे तिपच्चइगो।
मिस्सगविदियं उवरिमदुगं च देसेक्कदेसम्मि ।।1।। उवरिलपंचये पुण दुपच्चया जोगपचओ तिण्हं । सामण्णपचया खलु अट्टण्हं होति कम्माणं ।।2।।
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पंच' चदु सुण्ण सत्त य पण्णर दुग सुण्ण छक्क छक्केक्कं । सुण्णं चदु सगसंखा पच्चयविच्छित्ति णायव्वा ।।11।। पंच चतुः शून्यं सप्त च पंचदश दौ शून्यं षट्कं षट्कैकं एकं। शून्यं चतुः सप्तसंख्या प्रत्ययविच्छित्तिः ज्ञातव्या ॥
अर्थ - प्रथम गुणस्थान से लेकर सयोग केवली गुणस्थान तक क्रमशः पाँच, चार, शून्य, सात, पन्द्रह, दो, शून्य, छह, छह बार एक-एक, एक, शून्य, चार और सात की आस्रव व्युच्छित्ति जानना चाहिए।
विशेष - इस गाथा में आया हुआ छह बार एक-एक से नवमें गुणस्थान के छह भागों में एक-एक की व्युच्छित्ति जानना चाहिए।
मिच्छे हारदु सासणसम्मे मिच्छत्तपंचकं णत्थि।
अण दो मिस्सं कम्मं मिस्से ण चउत्थए सुणह ।।12।। मिथ्यात्वे आहारकदिकं सासादनसम्यक्त्वे मिथ्यात्वपंचकं नास्ति। अनः दे मिश्रे कर्म मिश्रे न चतुर्थे शृणुत॥
अर्थ - मिथ्यात्व गुणस्थान में आहारक काययोग और आहारक मिश्र काययोग, सासादन गुणस्थान में पंच मिथ्यात्व, मिश्र गुणस्थान में अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र, कार्मणकाययोग रूप आम्रवों का अभाव है तथा चतुर्थ गुणस्थान में किसी भी आस्रव का अभाव नहीं होता है। आगे के गुणस्थान संबंधी आम्रव अभावों को सुनों।
1. अत्र केशववर्णिनोक्तगाथा
पण चदु सुण्णं णवयं पण्णरस दोण्णि सुण्ण छक्कं च।
एक्केकं दस जाव य एवं सुण्णं च चारि सग सुण्णं ।।1।। 2. अनिवृत्तिकरण गुणस्थानस्य षड्भागास्तत्र
एकैकस्मिन् भागे एकैक आम्रवो व्युच्छित्ति क्रमेण । 3. अनन्तानुबंधिचतुष्कं 4. औदारिकवैक्रियिकाख्ये मिश्रे।
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विशेष - उपर्युक्त गाथा में गुणस्थान सम्बन्धी आस्रवों का अभाव मात्र निरूपित है अन्य व्यवस्था यहाँ नहीं कही गई है। जैसे - सासादन गुणस्थान में आहारक काययोग और आहारकमिश्र काययोग का भी अभाव पाया जाता है, किन्तु इन दोनों का इस गुणस्थान में कथन नहीं किया गया है। मात्र सासादन गुणस्थान सम्बन्धी पाँच मिथ्यात्वों के अभाव का उल्लेख किया गया है। इसी प्रकार आगे के गुणस्थान सम्बन्धी व्यवस्था जानना चाहिए।
दो मिस्स कम्म खित्तय तसवह वेगुव्व तस्स मिस्सं च। ओरालमिस्स कम्ममपचक्खाणं तु ण हि पंचे।|13|| ढे मिश्रे कर्म क्षिप, सवधो वैक्रियिकं तस्य मिश्रं च ।
औदारिकमिभं कर्माप्रत्याख्यानं तु न हि पंचमे ।। अर्थ - पंचम गुणस्थान में औदारिक मिश्र काययोग, आहारक मिश्र काययोग, त्रसवध, वैक्रियिक काययोग, वैक्रियिक मिश्र काययोग, औदारिक मिश्र काययोग तथा अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया और लोभ इन आम्रवों का अभाव है।
इत्तो उवरिं सगसगविच्छित्तिअणासवाण संजोगे। उवरूवरि गुणठाणे होतित्ति अणासवा णेया ।।14|| इत: उपरि स्वस्वविच्छित्त्यासवाणां संयोगे। उपर्युपरि गुणस्थाने भवन्तीति अनासवा ज्ञेयाः॥
अर्थ - पंचम गुणस्थान से आगे के गुणस्थानों में अपने-अपने गुणस्थान में होने वाली व्युच्छित्ति रूप आम्रवों का सद्भाव तथा इसके ऊपर के गुणस्थानों में उन आस्रवों का अभाव होता है अर्थात् जिन आम्रवों की पूर्व के गुणस्थानों में व्युच्छित्ति होती है उनका ही आगे के गुणस्थानों में अभाव होता है। ऐसा जानना चाहिए।
[6]
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विशेष - जैसे छट्वे गुणस्थान में आहारकद्विक की व्युच्छित्ति होती है इन दोनों का छट्वे गुणस्थान में सद्भाव तथा सातवें गुणस्थान में अभाव पाया जाता है।
मिच्छे पणमिच्छत्तं साणे अणचारि मिस्सगे सुण्णं। अयदे विदियकसाया तसवह वेगुव्वजुगलछिदी।।15।। मिथ्यात्वे पंचमिथ्यात्वं, साने अनचतुष्कं मिश्रके, शून्यं ।
अयते द्वितीयकषायाः प्रसवधवैक्रियिकयुगलच्छित्तिः ।। अर्थ - मिथ्यात्व गुणस्थान में पाँच मिथ्यात्व, सासादन गुणस्थान में अनन्तानुबंधी चतुष्क, मिश्र गुणस्थान में शून्य, चतुर्थ गुण स्थान में अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया और लोभ, त्रसवध, वैक्रियिक काययोग और वैक्रियिक मिश्र काययोग की आस्रव व्युच्छित्ति हो जाती है।
अविरयएक्कारह तियचउक्कसाया पमत्तए णत्थि। अत्थि हु आहारदुगं हारदुगं णत्थि सत्तट्टे ||16|| अविरत्यैकादश तृतीयचतुष्कषायाः प्रमत्तके न संति। अस्ति हि आहारदिकं, आहारद्धिकं नास्ति सप्तमे, अष्टमे ॥
अत्र सुखावबोधार्थं केशववर्णिनोक्तं गाथापंचकमुद्धियतेमिच्छे पणमिच्छतं, पढ़मकसायं तु सासणे, मिस्से। सुण्णं, अविरदसम्मे विदियकसायं विगुव्वदुगकम्मं ॥1॥ ओरालमिस्स तसवह णवयं, देसम्मि अविरदेक्कारा। तदियकसायं पण्णर, पमत्तविरदम्मि हारदुग छेदो।।2।। सुण्णं पमादरहिदे, पुव्वे छण्णोकसायवोच्छेदो,। अणियट्टिम्मि य कमसो एक्केकं वेदतियकसायतियं, ||3|| सुहमे सुहमो लोहो, सुण्णं उवसंतगेसु, खीणेसु । अलीयुभयवयणमणचउ, जोगिम्मि य सुणह वोच्छामि ।।4।। सचणुभायं वयणं मणं च ओरालकायजोगं च। ओरालमिस्सकम्मं उवयारेणेव सब्भावो, 15।।
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अर्थ - प्रमत्त गुणस्थान में ग्यारह अविरति और प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय ये पन्द्रह आस्रव नहीं हैं। आहारक काययोग, आहारक मिश्रकाययोग का आस्रव होता है। आहारक काययोग, आहारक मिश्र काययोग का सप्तम और अष्टम-गुणस्थान में आस्रव नहीं है।
छण्णोकसाय णवमे ण हि दसमे संढमहिलपुंवेयं । कोहो माणो माया ण हि लोहो णत्थि उवसमे खीणे ।।17।।
षण्णोकषायाः, नवमे 'नहि'' दशमे षंढमहिल'वेदाः। क्रोधो मानो माया 'नहि लोभी, नास्ति उपशमे, क्षीणे ॥
अर्थ - नवमें गुणस्थान में छह नोकषाय, दशवें गुणस्थान में नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, पुंवेद, संज्वलन क्रोध, मान, माया एवं उपशांत मोह और क्षीण मोह गुणस्थान संज्वलन लोभ में नहीं पाया जाता है।
अलियमणवयणमुभयं णत्थि जिणे अत्थि सचमणुभयं । मिस्सोरालियकम्मं अपचयाऽजोगिणो होति||18|| अलीकमनोवचनं उभयं नास्ति', जिने अस्ति सत्यमनुभयं । मिश्रौदारिककार्मणा, अप्रत्यया अयोगिनो भवन्ति ॥
अर्थ - जिनेन्द्र भगवान (सयोगकेवली) के असत्य मनोयोग, उभय मनोयोग, असत्य वचनयोग और उभय वचनयोग नहीं है तथा सत्य, अनुभय मनोयोग- वचनयोग, औदारिकमिश्र और कार्मण काययोग का सद्भाव है एवं अयोग केवली के समस्त आम्रव अभाव रूप हैं।
1-2. व्युच्छिते इत्यर्थः। 3 शून्यमित्यर्थः। 4 व्युच्छिद्यते इत्यर्थं : ।
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पचयसत्तावण्णा गणहरदेवेहिं अक्खिया सम्म। ते चउबंधणिमित्ता बंधादो पंचसंसारे।।1।।
प्रत्ययसप्तपंचाशत् गणधरदेवैः कथिताः सम्यक् ।
ते चतुबन्धनिमित्ताः बन्धतः पंचसंसारे॥ अर्थ - सत्तावन आस्रव (प्रत्यय) गणधर देव के द्वारा समीचीन प्रकार से कहे गये हैं। ये आसव, चारों प्रकार - प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबंध के कारण हैं तथा कर्मबंध से पंच प्रकार के संसार में परिभ्रमण होता है।
पण'वण्णं पण्णासं तिदाल छादाल सत्ततीसा य। चउवीस दुवावीसं सोलसमेगूण जाव णव सत्ता ।।20।। पंचपंचाशत् पंचाशत् त्रिचत्वारिंशत् षट्चत्वारिंशत् सप्तत्रिंशच्च। चतुर्विशति: दिदाविंशतिः षोडश एकोनं यावन्नव सप्त॥
अर्थ - प्रथम गुण स्थान से सयोग केवली पर्यन्त क्रमशः पचपन, पचास, तेतालीस, छियालीस, सेतीस, चौबीस, बाईस, बाईस, सोलह, पन्द्रह, चौदह, तेरह, बारह, ग्यारह, दश, नौ, नौ तथा सात आस्रव (संख्या) जानना चाहिए।
भावार्थ - मिथ्यात्व में पचपन, सासादन में पचास, मिश्र में तेतालीस, असंयत में छियालीस, देशसंयत में सेतीस, प्रमत्तसंयत में
अत्रागममोक्तगाथाद्वयं यथापणवण्णा पण्णासा तिदाल छादाल सत्ततीसा य। चदुवीसा वावीसा बावीसमपुव्वकरणोत्ति ।।1।। थूले सोलसपहुदी एगणं जाव होदि दस ठाणं। सुहुमादिसु दस णवयं णवयं जोगिम्मि सत्तेव ।।2।।
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चौबीस, अप्रमत्तसंयत में बाईस, अपूर्वकरण में बाईस, अनिवृत्तिकरण भाग-1 में सोलह, भाग-2 में पन्द्रह, भाग-3 में चौदह, भाग-4 में तेरह, भाग-5 में बारह, भाग-6 में ग्यारह, सूक्ष्मसाम्पराय में दस, उपशान्तमोह में नौ, क्षीणमोह में नौ तथा सयोगकेवली गुणस्थान में सात आसव होते हैं।
दुग सग चदुरिगिदसयं वीसं तियपणदुसहियतीसं च। इगिसगअडअड़दालं पण्णासा होति संगवण्णा ।।21|| ब्दौ सप्त चतुरेकदशकं विशति: त्रिकपंच-दिसहितत्रिंशच्च । एकसप्ताष्टाष्टचत्वारिंशत् पंचाशत् भवन्ति सप्तपंचाशत् ॥
अर्थ - प्रथम गुणस्थान से लेकर अयोग केवली पर्यन्त क्रमशः दो, सात, चौदह, ग्यारह, बीस, तेतीस, पेंतीस, पेंतीस, इक्तालीस, ब्यालीस, तेंतालीस, चवालीस, पेतालीस, छयालीस, सेतालीस, अड़तालीस, अड़तालीस, पचास और सत्तावन आम्रव (प्रत्यय) अभाव रूप जानना चाहिए।
भावार्थ - मिथ्यात्व गुणस्थान में दो, सासादन में सात, मिश्र में चौदह, अविरत में ग्यारह, देशविरत में बीस, प्रमत्तविरत में तेतीस, अप्रमत्तविरत में पेंतीस, अपूर्वकरण में पेंतीस, अनिवृत्तिकरण भाग-1 में इक्तालीस, भाग-2 में ब्यालीस, भाग-3 में तेतालीस, भाग-4 में चवालीस, भाग-5 में पेंतालीस, भाग-6 में छयालीस, सूक्ष्मसाम्पराय में सेंतालीस, उपशान्तमोह में अड़तालीस, क्षीणमोह में अड़तालीस, सयोगकेवली में पचास और अयोगकेवली गुणस्थान में सत्तावन आस्रवों का अभाव होता है।
अत्र केशववर्णिनोक्तगाथादोण्णि य सत्त य चोद्दसणुदसे वि एयार वीस तेत्तीसं। पणतीस दुसिगिदालं सत्तेतालट्ठदाल दुसु पण्णं ।।1।।
[10]
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आसव
संदृष्टि नं. 1 (अ) गुणस्थान | आस्रव व्युच्छित्ति
आस्रव अभाव 1. मिथ्यात्व 5 [5 मिथ्यात्व-155[5 मिथ्यात्व (एकान्त, विपरीत, विनय, | 2 [आहारक और आहारक
(एकान्त, विपरीत, संशय और अज्ञान), 12 अविरति | मिश्रकाययोग विनय, संशय और (षट्काय- पृथ्विकाय, जलकाय, अज्ञान)] अग्निकाय,वायुकाय, वनस्पतिकाय और
त्रसकाय, पाँच इन्द्रियाँ- स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु, श्रोत्र तथा मन), 13 योग (मनोयोग, 4- सत्य, असत्य, उभय, अनुभय, वचनयोग 4-सत्य, असत्य, उभय, अनुभय, काययोग 5-औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण) कषाय 25 (कषाय 16 - अनन्तानुबन्धी-क्रोध, मान,माया,लोभ, अप्रत्याख्यान-क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यान-क्रोध, मान, माया, लोभ, |संज्वलन -क्रोध, मान, माया, लोभ, नोकषाय - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद,द, नपुंसकवेद)]
2. सासादन| 4 [अनन्तानुबन्धी 50 [12 अविरति, मनोयोग 4, 7 [मिथ्यात्व 5 -
- क्रोध, मान, वचनयोग 4, काययोग 5 - . (एकान्त,विपरीत, विनय, माया, लोभ] (औदारिक, औदारिकमिश्र,वैक्रियिक, संशय और अज्ञान), वैक्रियिकमिश्र, और कार्मण) कषाय 25] आहारक और आहारक
मिश्र काययोग 3. मिश्र
43 [अविरति - 12 (षट्काय - | 14 [मिथ्यात्व 5पृथ्विकाय, जलकाय, अग्निकाय, I (एकान्त, विपरीत, वायुकाय, वनस्पतिकाय और | विनय, संशय और त्रसकाय, पाँच इन्द्रियाँ - स्पर्शन, | अज्ञान),आहारक रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र तथा मन) | आहारकमिश्र, औदारिक
[11]
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गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति
आस्रव
। आस्रव अभाव 10 योग (मनोयोग 4 - सत्य, असत्य, | मिश्र, वैकियिकमिश्र, और उभय, अनुभय, वचनयोग 4- सत्य, | कार्मण काययोग) असत्य, उभय, अनुभय, काययोग 2-14 अनन्तानुबन्धी - औदारिक, वैक्रियिक), कषाय 21 (कषाय | क्रोध, मान, माया, लोभ 12 अप्रत्याख्यान-क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यान - क्रोध, मान, माया, लोभ, संज्वलन - क्रोध, मान, माया, लोभ, 9 नोकषाय - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसकवेद)]]
4. अविरत 7 [अप्रत्याख्यान - 146 [अविरति - 12 (षट्काय - 11 मिथ्यात्व5-(एकान्त,
क्रोध, मान, माया, पृथ्विकाय, जलकाय, अग्निकाय, | विपरीत, विनय, संशय और लोभ, वैक्रियिक | वायुकाय, वनस्पतिकाय और अज्ञान),आहारकऔर काययोग. वैकियिकमिश्र | सकाय, पाँच इन्द्रियाँ - स्पर्शन, | आहारकमिश्रकाययोग, काययोग,सअविरति। रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र तथा मन)|4अनन्तानबन्धी-क्रोध,
13 योग (मनोयोग 4 - सत्य, | मान, माया, लोभ] असत्य, उभय, अनुभय, वचनयोग 4 - सत्य, असत्य, उभय, अनुभय, काययोग 5 - औदारिक, औदारिक मिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिक मिश्र और कार्मण) कषाय 21 (कषाय 12 अप्रत्याख्यान-क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यान-क्रोध, मान, माया, लोभ, संज्वलन - क्रोध, मान, माया, लोभ, नोकषाय - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुद, नपुंसकवेद)]
5. देशविरत 15 [अविरति - 11/37[अविरति-11(पंचस्थावर- 20[मिथ्यात्व 5
पंचस्थावस्काय- | पृथ्विकाय, जलकाय, अग्निकाय, | (एकान्त, विपरीत, पृथ्वकाय,जलकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और विनय, संशय और अग्निकाय, वायुकाय, पाँच इन्द्रियाँ - स्पर्शन, रसना, | अज्ञान),आहारकऔर वनस्पतिकाय,पाँच |घ्रण, चक्षु,श्रोत्र तथा मन), योग | आहारकमिश्र, औदारिक
-
-
[12]
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गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति
आसव
आस्रव अभाव इन्द्रियाँ-स्पर्शन, . (मनोयोग 4-सत्य, असत्य, उभय, मिश्र,वैक्रियिक, वैक्रियिक रूसना,घ्रण,चक्षु, अनुभय,क्चनयोग4-सत्य,असत्य, | मिश्र,और कार्मणकाययोग), श्रोत्र तथामन, | उभय,अनुभय,काययोग 1
4अनन्तानुबन्धी,4 प्रत्याख्यान-क्रोध, औदारिक), कषाय 17 (कषाय8 अप्रत्याख्यान, वस . मान, माया, लोभ] प्रत्याख्यान-क्रोध, मान, माया, लोभ, | अविरति]
संज्वलन-क्रोध,मान,माया, लोभ,9 नोकषाय - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद,फेद, नपुंसकवेद)]
6.प्रमत्त संयम
2 [आहारक काययोग, आहारक मिश्र काययोग]
| 24 [11 योग (मनोयोग 4सत्य, असत्य, उभय, अनुभय, वचनयोग 4 - सत्य, असत्य, उभय, अनुभय, काययोग 3 - आहारक, आहास्कमिश्र, औदारिक), कषाय 13 (कषाय 4संज्वलन-क्रोध, मान, माया, लोभ, नोकषाय - हास्य, | रति, अरति,शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुद, नपुंसकवेद)]
33 [12 अविरति, 5 मिथ्यात्व, औदारिक मिश्र,वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, और कार्मण काययोग) 4 अनन्तानुबन्धी 4 अप्रत्याख्यान, 4 प्रत्याख्यान
7. अप्रमत्त संयम
| 22 [9 योग (मनोयोग 4 - सत्य, | 35 [12 अविरति, असत्य, उभय, अनुभय, वचनयोग | 5 मिथ्यात्व, औदारिक 4 - सत्य, असत्य, उभय, | मिश्र, वैक्रियिक, अनुभय, काययोग 1- औदारिक), कषाय | वैक्रियिकमिश्र, आहारक, 13 (कषाय 4 संज्वलन -क्रोध, मान, | आहारकमिश्र और कार्मण माया, लोभ, नोकषाय-हास्य, रति, काययोग) अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, | 4अनन्तानुषन्धी,4 फुवेद, नपुंसकवेद)]
अप्रत्याख्यान, 4 प्रत्याख्यान
करण
8. अपूर्व- 6 [हास्य, रति, 22 [७ योग (मनोयोग 4 - सत्य, | 35 [12 अविरति,
अरति, शोक, भय, | असत्य, उभय, अनुभय, वचनयोग | 5 मिथ्यात्व, औदारिक जुगुप्सा 4 - सत्य, असत्य, उभय,
मिश्र, वैक्रियिक, अनुभय, काययोग 1- औदारिक), कषाय
वैक्रियिकमिश्र,आहारक, 13(कषाय 4 संज्वलन-क्रोध, मान,
आहारकमिश्रऔर कार्मण
[13]
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गुणस्थान | आस्रव व्युच्छित्ति
9. अनिवृत्ति - 1 [नपुंसकवेद]
करण भाग 1
9. अनिवृत्ति- 1 [स्त्रीवेद ]
करण
भाग 2
9. अनिवृत्ति
करण
भाग 3
1 [पुंवेद]
आस्रव
माया, लोभ, 9 नोकषाय- हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसकवेद)]
आस्रव अभाव
16 [9 योग (मनोयोग 4 - सत्य, 41 [12 अविरति, असत्य, उभय, अनुभय, वचनयोग | 5 मिथ्यात्व, औदारिक 4 सत्य, असत्य, उभय, मिश्र, वैक्रियिक, अनुभय, काययोग 1 - औदारिक), कषाय 7- 4 संज्वलन - क्रोध, मान, माया, लोभ, 3 नोकषाय-स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसकवेद]
14 [9 योग (मनोयोग 4- सत्य, असत्य, उभय, अनुभय, वचनयोग 4 सत्य, असत्य, उभय, अनुभय, काययोग 1 - औदारिक), कषाय 5 - 4 संज्वलन - क्रोध, मान, माया, लोभ, 1 नोकषायू पुंवेद]
काययोग) 4 अनन्तानुबन्धी, 4
अप्रत्याख्यान, 4 प्रत्याख्यान ]
वैकियिकमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र और कार्मण काययोग)
4
16 [9 योग (मनोयोग 4 - - सत्य, 42 [ 12 अविरति, असत्य, उभय, अनुभय, वचनयोग | 5 मिथ्यात्व, औदारिक सत्य, असत्य, उभय, मिश्र, वैक्रियिक, अनुभय, काययोग 1 - औदारिक), कषाय वैक्रियिक मिश्र, 6 - 4 संज्वलन - क्रोध, मान, माया, लोभ, 2 नोकषाय - स्त्रीवेद, पुंवेद]
4 अनन्तानुबन्धी, 4
अप्रत्याख्यान,
4 प्रत्याख्यान, हास्य आदि 6 नोकषाय ]
आहारक, आहारकमिश्र और कार्मण काययोग,
4 अनन्तानुबन्धी, 4
अप्रत्याख्यान,
4 प्रत्याख्यान, हास्य आदि 6 नोकषाय, नपुंसकवेद ]
43 [12 अविरति, 5 मिथ्यात्व, औदारिक मिश्र, वैक्रियिकद्विक, आहारकद्विक और कार्मण काययोग,
4 अनन्तानुबन्धी, 4
अप्रत्याख्यान,
4 प्रत्याख्यान, हास्य आदि 6 नोकषाय, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद ]
[14]
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गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति आस्रव
आस्रव अभाव । 9.अनिवृत्ति- 1 [संज्वलन - | 13 [9 योग (मनोयोग 4 - सत्य, | 44 [12 अविरति, करण क्रोध] असत्य, उभय, अनुभय, वचनयोग 5 मिथ्यात्व, औदारिक भाग4
4 - सत्य, असत्य, उभय, | मिश्र, वैक्रियिकद्विक, अनुभय, काययोग 1- औदारिक),- आहारकद्विक, और कार्मण
कषाय 4- संज्वलन -क्रोध,मान, | काययोग, माया, लोभ)]
4अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, 4 प्रत्याख्यान,6 नोकषाय, नपुंसकवेद,
स्त्रीवेद, पुंवेद ७.अनिवृत्ति- 1[संज्वलन - [12 [9 योग (मनोयोग 4 - सत्य, 1 45 [12 अविरति, करण
असत्य, उभय, अनुभय, वचनयोग | 5 मिथ्यात्व, औदारिक भाग5
4 - सत्य, असत्य, उभय, | मिश्र, वैक्रियिकद्विक, अनुभय, काययोग 1- औदारिक), | आहारकद्विक और कार्मण |संज्वलन-मान, माया,लोभ] काययोग4अनन्तानुबन्धी,4
अप्रत्याख्यान, 4 प्रत्याख्यान, संज्वलन - क्रोध 6 नोकषाय, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, पुंवेद
मान]
9.अनिवृत्ति-1 [संज्वलन - करण माया] भाग6
|11 [9 योग (मनोयोग 4 - सत्य, | 46 [12 अविरति, असत्य, उभय, अनुभय, वचनयोग | 5 मिथ्यात्व, औदारिक 4 - सत्य, असत्य, उभय, | मिश्र, वैक्रियिकद्विक, अनुभय, काययोग 1- औदारिक), मक| आहारक द्विक और कार्मण संज्वलन- माया, लोभ)] | काययोग,
4अनन्तानुबन्धी, 4 अप्रत्याख्यान, 4 प्रत्याख्यान, संज्वलन - क्रोध, मान,नोकषाय, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, फुद
[15]
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गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति आस्रव
आस्रव अभाव । 10. सूक्ष्य | 1[संज्वलन - 10 [9 योग (मनोयोंग 4 - सत्य, 47 [12 अविरति, साम्पराय | लोभ] असत्य, उभय, अनुभय, वचनयोग | 5 मिथ्यात्व, औदारिक संयत
4 - सत्य, असत्य, उभय, | मिश्र, वैक्रियिक द्विक, अनुभय, काययोग 1 - | आहारकद्विक और कार्मण औदारिक), संज्वलन - लोभ] | काययोग,
4अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, 4 प्रत्याख्यान, संज्वलन - क्रोध, मान, माया,
9 नोकषाय] 11.
७ [9 योग (मनोयोग 4 - सत्य, | 48 [12 अविरति, उपशांत
असत्य, उभय, अनुभय, वचनयोग | 5 मिथ्यात्व, औदारिक 4 - सत्य, असत्य, उभय, | मिश्र, वैक्रियिकद्विक, अनुभय, काययोग 1 - | आहारकद्विक और कर्मण औदारिक)]
काययोग,
16 कषाय 9 नोकषाय] 12.क्षीण
9 [9 योग (मनोयोग 4 - सत्य, | 48 [12 अविरति, मोह
असत्य, उभय, अनुभय, वचनयोग | 5 मिथ्यात्व, औदारिक 4 - सत्य, असत्य, उभय, | मिश्र, वैक्रियिकद्विक, अनुभय, काययोग 1 - | आहारकद्विक और कार्मण औदारिक)]
काययोग,
16 कषाय, नोकषाय] 13. सयोग | 7 [सत्य, अनुभय |7योग 7 [सत्य, अनुभय मनोयोग, सत्य, 50 [12 अविरति, केवली मनोयोग, सत्य, अनुभयक्चनयोग, काययोग3-औदारिक, | 5 मिथ्यात्व, असत्य,
अनुभय वचनयोग, औदारिकमिश्र और कार्मण काययोग] | उभय मनोयोग, असत्य, काययोग 3
उभय वचनयोग, औदारिक,
वैक्रियिकद्विक, औदारिकमिश्रऔर
आहारकद्विककाययोग, 16 कार्मण काययोग
कषाय, नोकषाय]
14. अयोग केवली
57 [अयोग केवली गुणस्थान में सभी 57 आस्रवों का अभाव होता
[16]
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तिसु तेरं दस मिस्से सत्तसु णव छट्टयम्मि एक्कारा। जोगिम्हि सत्तजोगा अजोगिठाणं हवे सुण्णं ।।22।। त्रिषु त्रयोदश दश मिश्रे सप्तसु नव षष्ठे एकादश ।
योगिनि सप्तयोगा अयोगिस्थानं भवेच्छून्यं ॥ __ अर्थ - तीन गुणस्थानों में तेरह अर्थात् मिथ्यात्व, सासादन और अविरत गुणस्थान में तेरह, मिश्र में दस, सात गुणस्थानों में नौ अर्थात् देशविरत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्तमोह तथा क्षीणमोह गुणस्थान में नौ का, प्रमत्तविरत में ग्यारह सयोगकेवली में सात एवं अयोगकेवली गुणस्थान में शून्य इस प्रकार उपर्युक्त गुणस्थानों में योग का सद्भाव होता है।
संदृष्टि नं. 1 (ब) योग - योग 15 होते हैं। जो इस प्रकार हैं - मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 7 - औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र और कार्मण काययोग।
गुणस्थान
1.मिथ्यात्व
2.सासादन
3.मिश्र 4.अविस्त
13 [मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 5 - औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्रऔर कार्मण काययोग] 13 [उपर्युक्त 10[मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 2 -औदारिक और वैक्रियिककाययोग] 13 [मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 5 - औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्रऔर कार्मण काययोग] 9[मनोयोग 4,क्चनयोग 4, औदारिककाययोग] 11 [मनोयोग4, वचनयोग4, काययोग 3-औदारिक, आहारक और आहारकमिश्र काययोग]
[17]
5.देशविस्त
6.प्रात्तविस्त
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गुणस्थान
योग
7.अप्रमत्तविरत
8.अपूर्वकरण
| 9 [मनोयोग 4, वचनयोग 4, औदारिक काययोग] |9 [उपर्युत | 9 [उपयुक्त
9.अनिवृत्त
10.सूक्ष्मसाम्पराय
[9[उपर्युक्त
11.उपशंतमह
12.क्षीणमह
| 9 [उपर्युक्त |9 [उपयुक्त | 7 [सत्य, अनुभय मनोयोग, सत्य, अनुभय वचनयोग, काययोग - 3 औदारिक,
औदारिकमिश्र और कार्मण काययोग]
13.सयोगकेचली
13.अयोगकेवली
-
-
दुसु दुसु पणइगिवीसं सत्तरसं देससंजदे तत्तो। तिसु तेरं णवमे सग सुहमेगं होति हु कसाया ।।23।।
व्ये दयोः पंचैकविंशतिः सप्तदश देशसंयते ततः। त्रिषु त्रयोदश नवमे सप्त सूक्ष्मे एकः भवन्ति हि कषायाः॥
अर्थ - दो गुणस्थानों में पच्चीस अर्थात् मिथ्यात्व और सासादन गुणस्थान में पच्चीस कषाय, दो गुणस्थानों में इक्कीस अर्थात् मिश्र और अविरत गुणस्थान में इक्कीस कषाय, देशसंयम में सत्तरह, तीन गुणस्थानों तेरह अर्थात् प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत और अपूर्वकरण गुणस्थान में तेरह अनिवृत्तिकरण में सात एवं सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में एक लोभ कषाय होती है।
1. प्रथमद्वितीयगुणस्थाने पंचविंशतिः । 2. तृतीयचतुर्थगुणस्थाने एकविंशति: इत्यर्थः।
[18]
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संदृष्टि 1 (स)
कषाय
क्रोध,
कषाय 25 होती हैं जो इस प्रकार हैं - अनन्तानुबंधी - क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यान मान, माया, लोभ, संज्वलन - क्रोध, मान, माया, लोभ, नौ नोकषाय- हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद और नपुंसकवेद ।
1
2
3
25 [16 कषाय, 9 नोकषाय ]
25 [16] कषाय, 9 नोकषाय ]
21 [अप्रत्याख्यानादि 12, 9 नोकषाय ]
21 [उपर्युक्त ]
17 [ प्रत्याख्यान 8, 9 नोकषाय]
13 [संज्वलन 4, 9 नोकषाय ]
13 [ उपर्युक्त ]
13 [उपर्युक्त ]
7 [संज्वलन 4 एवं तीन वेद ]
1 [लोभ]
इति गुणस्थान- त्रिभङ्गी समाप्ता ।
केवलणाणेण
विजिदचउघाइकम्मे णादसयलत्थे । वीरविणे वंदित्ता जहाकमं मग्गणासवं वोच्छे |24|
।
विजितचतुर्घातिकर्माणं केवलज्ञानेन ज्ञातसकलार्थं । वीरजिनं वन्दित्वा यथाक्रमं मार्गणायामास्रवान् वक्ष्ये ॥
4
5
6
7.
8
af
9
-
10
गुणस्थान
मिथ्यात्व
सासादन
मिश्र
अविस्त
देशविस्त
प्रमत्तविरत
अप्रमत्तविस्त
अपूर्वकरण
अनिवृत्तिकरण
सूक्ष्मसम्प
कषाय
अर्थ - चार घातियाँ कर्मों का जिन्होंने नाश कर दिया है, केवल ज्ञान के द्वारा जिन्होंने समस्त पदार्थों का जान लिया है, ऐसे वीर जिन को प्रणाम कर, मैं क्रमानुसार मार्गणाओं में आस्रवों का कथन करूंगा ।
[19]
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________________
मिस्सतियकम्मणूणा पुण्णाणं पच्चया जहाजोगा। मणवयणचउ-सरीरत्तयरहिता पुण्णगे होति ।।25।। मिश्रत्रिककार्मणोनाः पूर्णानां प्रत्यया यथायोग्यः। मनोवचनचतुः शरीरत्रयरहिता अपूर्ण-के भवन्ति ॥
अर्थ - पर्याप्त जीवों के औदारिक मिश्र, वैक्रियिक मिश्र, आहारक मिश्र और कार्मण काययोग से रहित यथायोग्य आस्रव (प्रत्यय) होते हैं। अपर्याप्तक जीवों के चार मनोयोग, चार वचनयोग, तीन (औदारिक, वैक्रियिक और आहारक) काययोग रूप प्रत्यय नहीं होते है।
इत्थीपुंवेददुगं हारोरालियदुगं च वज्जित्ता। णेरइयाणं पढ़मे इगिवण्णा पचया होति ।।26।। स्त्रीपुंवेददिकं आहरकौदारिकद्धिकं वर्जयित्वा । नारकाणां प्रथमे एकपंचाशत्प्रत्यया भवन्ति ॥
अर्थ - प्रथम नरक में स्त्रीवेद, पुंवेद, औदारिक काययोग, औदारिक मिश्र काययोग, आहारक काययोग और आहारक मिश्र काययोग को छोड़कर इक्यावन आस्रव होते हैं।
विदियगुणे णिरयगदि ण यादि इदि तस्स पत्थि कम्मइयं । वेगुव्वियमिस्सं च दु ते होति हु अविरदे ठाणे ।।27।। व्दितीयगुणेन नरकगतिं न याति इति तस्य नास्ति कार्मणं । वैक्रियिकमिश्रं च तु तौ भवतो हि अविरते स्थाने॥
1. आहारद्विकं औदारिकद्विकं। 2. गुणस्थाने। 3. 'णहि सासणो अपुण्णे साहारणसुहुमगे य तेउदुगे'। इत्यागमे।
[20]
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अर्थ - सासादन गुणस्थानवी जीव, नरक गति में नहीं जाता है इसलिए उसके सासादन गुणस्थान में कार्मण काययोग और वैक्रियिक मिश्र काययोग नहीं होता है। चतुर्थ गुणस्थान में कार्मण काययोग और वैक्रियिक मिश्र काययोग पाया जाता है।
सक्करपहुदिसु एवं अविरदठाणे ण होइ कम्मइयं । वेगुव्वियमिस्सो वि य तेसिं मिच्छेव वोच्छेदो ।।28।।
शर्कराप्रभृतिषु एवं, अविरतस्थाने न भवति कार्मणं । वैक्रियिकमिश्रमपि च तयोः मिथ्यात्वे एवं व्युच्छेदः । अर्थ - इसी प्रकार द्वितीयादि पृथ्वियों में चतुर्थ गुणस्थान में कार्मण काययोग और वैक्रियिक मिश्र काययोग नहीं होता है। इन दोनों योगों की मिथ्यात्व गुणस्थान में ही व्युच्छित्ति हो जाती है।
संदृष्टि नं. 2
प्रथम नरक आस्रव 51 प्रथम नरक में 51 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - मिथ्यात्व 5, अविरति 12, योग 11 (मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 3 - वैक्रियिक, वैक्रियिक मिश्र और कार्मण), कषाय 23 (कषाय 16 , नोकषाय 7 - हास्य, रति, अरति, शोक, भय,जुगुप्सा, नपुंसकवेद)। गुणस्थान मिथ्यात्व आदि चार होते हैं।
आस्रव अभाव
।
गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति आस्रव 1 मिथ्यात्व |5[मिथ्यात्व5] 151 [मिथ्यात्व,अविरति 12,
योग 11 (मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग3-वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्रऔर कार्मण), कषाय 23 (कषाय 16, नोकषाय 7-हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नपुंसकवेद)]
[21]
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________________
गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति
2. सासादन 4 [ अनन्तानुबन्धी - क्रोध, मान, माया, लोभ ]
| 3 मिश्र
4. अविस्त
०
8 [ अप्रत्याख्यान -
क्रोध, मान, माया,
लोभ, त्रस अविरति, वैक्रियिक, वैक्रियिक मिश्र, और कार्मण
काययोग]
गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति 1. मिथ्यात्व 7 [ मिथ्यात्व 5, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण काययोग]
आस्रव
आसव अभाव
44 [ अविरति 12, योग 9 ( मनोयोग | 7 [ मिथ्यात्व 5, 4, वचनयोग 4, काययोग 1वैक्रियिकमिश्र और वैक्रियिक), कषाय 23 ( कषाय 16, कार्मण काययोग] नोकषाय 7- हास्य आदि 6, नपुंसकवेद) ]
40 [ उपर्युक्त 44 - 4 अनन्तानुबन्धी-क्रोध, |मान, माया, लोभ ]
42 [ अविरति 12, योग 11 (मनोयोग 4, वचनयोग 4, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण काययोग), कषाय 19 (अप्रत्याख्यान आदि 12 कषाय नोकषाय -हास्य आदि 6 एवं नपुंसकवेद)]
संदृष्टि नं. 3
द्वितीयादि 6 नरक आस्रव 51
"
वैक्रियिक,
द्वितीयादि 6 नरकों में 51 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं- मिथ्यात्व 5 अविरति 12, योग 11 ( मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 3 वैक्रियिकमिश्र और कार्मण), कषाय 23 ( कषाय 16, नोकषाय 7 हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नपुंसकवेद) । गुणस्थान मिथ्यात्व आदि चार होते हैं ।
आस्रव
51 [मिथ्यात्व 5, अविरति 12, योग 11 (मनोयोग 4, क्चनयोग 4, काययोग 3 - वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण), कषाय 23
-
हास्य,
( कषाय 16, नोकषाय 7 रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नपुंसकवेद ) ]
11 [उपर्युक्त 7+ अनन्तानुबन्धी 4-क्रोध, मान, माया, लोभ]
[9] मिथ्यात्व 5, अनन्तानुबन्धी4 - क्रोध, मान, माया, लोभ ]
-
-
आस्रव अभाव
0
[22]
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गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति आस्रव
आस्रव अभाव 2 सासान 4[अनन्तानुषन्धी- 44[उपर्युक्त 51-7(मिथ्यात्व 5, 7 [मिथ्यात्व 5, क्रोध, मान, माया, वैक्रियिकमिश्रऔर
वैक्रियिकमिश्र और लोभ] कार्मणकाययोग)]
कर्मणकाययोग] 3. मिश्र | |40 [उपर्युक्त 44
11[उपर्युक्त 7+ अनन्तानुबन्धी 4 - क्रोध, मान, अनन्तानुबन्धी 4] माया, लोभ]
14. अविस्त
40 [उपर्युक्त
11 [उपर्युक्त
6[अप्रत्याख्यान 4, सअविरति, वैक्रियिककाययोग]
वेगुव्वाहारदुगं ण होइ तिरियेसु सेसतेवण्णा। एवं भोगावणिजे संढ़ विरहिऊण बावण्णा ॥29।।
वैक्रियिकाहारदिकं न भवति तिर्यक्षु शेषत्रिपंचाशत् । एवं भोगावनीजेषु षंढ़ विरह्य दापंचाशत् ।। अर्थ - कर्मभूमि तिर्यंचों के वैक्रियिक, वैक्रियिक मिश्र काययोग, आहारक, आहारक मिश्र काययोग ये आस्रव (प्रत्यय) नहीं होते हैं शेष तिरेपन आस्रव (प्रत्यय) होते हैं। इसी प्रकार भोग भूमिज तिर्यंचों के उपर्युक्त तिरेपन आस्रव में से नपुंसकवेद को छोड़कर शेष बावन आस्रव होते हैं।
लद्धिअपुण्णतिरिक्खे हारदु मणवयण अट्ट ओरालं। वेगुव्वदुगं पुंवेदित्थीवेदं ण बादालं ।।30॥ लब्ध्यपूर्णतिर्यक्षु आहारकदिकं मनवचनाष्टकं औदारिकं । वैक्रियिकब्दिकं पुंवेदस्त्रीवेदौ न व्दाचत्वारिंशत् ॥
अर्थ - लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यंचों के आहारकद्विक - चार मनोयोग, चार वचनयोग, औदारिक काययोग, वैक्रियिकद्विक, पुंवेद, स्त्रीवेद को छोड़कर ब्यालीस आस्रव होते हैं।
[23]
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आसव अभाव
संदृष्टि नं. 4
कर्मभूमिजतिर्यञ्च आस्रव 53 कर्मभूमिजतिर्यञ्च में 53 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - मिथ्यात्व 5, अविरति 12, योग 11 (मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 3 - औदारिक, औदारिक मिश्र और कार्मण), कषाय 25 (कषाय 16, नोकषाय 9 - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसकवेद)। गुणस्थान मिथ्यात्व आदि पाँच होते हैं। गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति
आस्रव 1 मिथ्यात्व | 5 [मिथ्यात्व5] 53 [मिथ्यात्व 5,अविरति 12,
योग 11 (मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग3-औदारिक, औदारिकमिश्र और कार्मण), कषाय 25
(कषाय 16 , नोकषाय 9)] 12. सासादन 4 [अनन्तानुबन्धी - 48 [अविरति 12, योग 11 [मिथ्यात्व 5]
क्रोध, मान, माया, (मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग लोभ
3- औदारिक, औदारिकमिश्र और कार्मण), कषाय 25 (कषाय 16,
नोकषाय 9)] 3मिश्र 0 |42 [उपर्युत48-6
| 11 [मिथ्यात्व5, (अनन्तानुषन्धी4, औदास्किमिश्र अनन्तानुबन्धी4, और कार्मणकाययोग)]
औदारिकमिश्र, और कार्मणकाययोग
4 अविस्त
| 7 [अप्रत्याख्यान4, 44 [दूसरेगुणस्थान के48 - त्रस अविरति, अनन्तानुबन्धी 4] औदारिक मिश्र और कार्मण काययोग
9[अनन्तानुबन्धी4, मिथ्यात्व 5]
5 देशविस्त
15[अविरति 11, 37 [उपर्युत 44-7(अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान 4-क्रोध, 4,सअविरति, औदारिकमिश्र मान, माया, लोभ] और कार्मणकाययोग)]
|16[उपर्युत +7 (अप्रत्याख्यान4,स अविरति, औदारिकमिश्र और कार्मणकाययोग)]
[24]
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संदृष्टि नं. 5
भोगभूमिजतिर्यंच आस्रव 52 भूमिभूमिजतिर्यंचों के 52 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - 5 मिथ्यात्व, 12 अविरति, योग 11 (मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 3- औदारिक, औदारिक मिश्र, और कार्मण), कषाय 24 (कषाय 16, नोकषाय 8- हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद)। गुणस्थान मिथ्यात्व आदि चार होते हैं। गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति आस्रव
आस्रव अभाव | 1 मिथ्यात्व |5[5 मिथ्यात्व] 52[5 मिथ्यात्व, 12अविरति,
योग 11 (मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग3-औदारिक, औदारिकमिश्र और कार्मण), कषाय 24 (कषाय 16, नोकषाय 81 हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद)]
2. सासादन 4 [अनंतानुबंधी, 47 [उपर्युक्त 52-5 मिथ्यात्व]
| 4 कषाय
5 [5 मिथ्यात्व]
41 उपर्युक्त 47-6(अनंतानुबंधी 4, औदारिकमिश्र, कार्मणकाययोग)]
11[5 मिथ्यात्व, |4अनंतानुबंधी,
औदारिकमिश्रऔर कार्मणकाययोग]
14. अविस्त
43 [52-9(5 मिथ्यात्व, अनंतानुबंधी 4)]
9 [5 मिथ्यात्व, 4अनंतानुबंधी
|7[अप्रत्याख्यान क्रोध आदि4, औदारिकमिश्र और कार्मणकाययोग, सअविरति]
[25]
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संदृष्टि नं.6 लब्ध्यपर्याप्त तिर्यंच आस्रव 42
लब्ध्याप्त तिर्यंचों के 42 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - 5 मिथ्यात्व, मनअविरति को छोड़कर।1 अविरति, योग 3 (औदारिक, औदारिकमिश्र, और कार्मणकाययोग), कषाय 23 (कषाय 16, नोकषाय 7 - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नपुंसकवेद)। गुणस्थान मिथ्यात्व मात्र ही होता है।
आस्रव अभाव
गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति
आम्रव 1. मिथ्यात्व
42 [5 मिथ्यात्व, 11 अविरति, योग 3 (औदारिक, औदारिकमिश्र और कार्मणकाययोग), कषाय 23 (कषाय 16, नोकषाय 7- हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नपुंसकवेद]
मणुवेसु ण वेगुव्वदु पणवण्णं संति तत्थ भोगेसु । हारदुसंढविवन्जिद दुवण्णऽपुण्णे अपुण्णे वा ॥31॥
मनुजेषु न वैक्रियिकदिकं पंचपंचाशत् सन्ति तत्र भोगेषु । आहारदिकषंदविवर्जितं दिपंचाशत् 'अपूर्णे अपूर्णे इव ॥
अर्थ - कर्म भूमिज मनुष्यों के वैक्रियिक द्विक को छोड़कर, पचपन आम्रव होते हैं। भोग भूमिज मनुष्यों के उपर्युक्त पचपन में से आहारद्विक, नपुंसकवेद को छोड़कर बावन आस्रव (प्रत्यय) होते हैं तथा लब्ध्यपर्याप्त मनुष्यों में लब्ध्यपर्याप्त तिर्यंचों के समान 42 आस्रव जानना चाहिए।
1. लब्ध्यपर्याप्तमनुष्येषु लब्ध्यपर्याप्ततिर्यग्वज्ज्ञातव्यमित्यर्थः ।
[26]
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संदृष्टि नं.7
-
कर्मभूमिजमनुष्य आस्रव 55 कर्मभूमिजमनुष्य के 55 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं :- 5 मिथ्यात्व, 12 अविरति, योग 13 (मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 5 - औदारिक,
औदारिकमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र और कार्मणकाययोग), कषाय 25 (कषाय 16, नोकषाय 9 - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसकवेद)। गुणस्थान मिथ्यात्व आदि चौदह होते हैं। गुणस्थान आम्रव व्युच्छित्ति आस्रव
।
आस्रव अभाव 1 मिथ्यात्व |5[5 मिथ्यात्व 53 [5 मिथ्यात्व, 12अविरति, 2[आहारक, आहारकमिश्र योग 11 (मनोयोग4,क्चनयोग4,
काययोग] काययोग 3-औदारिक, औदारिकमिश्र और कार्मणकाययोग), कषाय 25 (कषाय 16, नोकषाय 9 - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद,
नपुंसकवेद] 2 सासान 4[अनंतानुबंधी 4 |48 [12 अविरति, योग 11
7[5 मिथ्यात्व,आहारक कषाय] (मनोयोग4,क्चनयोग4,
और आहास्वमिश्र काययोग 3-औदारिक, औदारिकमिश्र | काययोग और कार्मण), कपाय 25 (कषाय 16, नोकषाय 9- हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसकवेद 42 [उपर्युक्त 48 -6 | 13 [5 मिथ्यात्व, (4 अनंतानुबंधी, औदारिकमिश्र 14 अनंतानुबंधी, और कार्मणकाययोग)]
औदारिकमिश्रऔर आहारक, आहारकमिश्र,
कार्मणकाययो] 4 अविरत |5[अप्रत्याख्यान 144[12 अविरति, योग 11 11[5 मिथ्यात्व, क्रोध आदि 4, (मनोयोग 4, वचनयोग 4, 4 अनंतानुबंधी,
[27]
-
3.मिश्र
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-
गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति आसव
आस्रव अभाव सअविरति काययोग 3-औदारिक,
आहारक आहारकमिश्र औदारिकमिश्रऔर कार्मण), कषाय 21 | काययोग] (अप्रत्याख्यानादि 12 कपाय, नोकषाय 9 - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद,
फुद, नपुंसकवेद)] 5.देशविस्त 15 गुणस्थानवत] 37 गुणस्थानवत]
18[गुणस्थानक्त20वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र
काययोग] 6. प्रमत्त 2 [गुणस्थानवत्] 24 [गुणस्थानवत्]
31 [गुणस्थानवत् 33 - विस्त
वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र काययोग]
22 [गुणस्थानवत्]
7, अप्रमत्त 10 विरत
33 [गुणस्थानवत् 35 - वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र काययोग]
8. अपूर्व- 6 [गुणस्थानवत्] / [गुणस्थानवत्]
कण
33 [गुणस्थानवत् 35 - वैक्रियिक, वैविहियकमिश्र काययोग]
७.अनिवृत्ति-1 [गुणस्थानवत्] |16 [गुणस्थानवत्].
करण भाग 1 ७.अनिवृत्त- 1 गुस्थानवता |15 गुणस्थानवत]
39 [गुणस्थानवत् 41 - वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र काययोग]
करण
40[गणस्थानवत्42वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र काययोग]
भाग 2
-
9.अनिवृत्ति-1 [गुणस्थानवत] |14 [गुणस्थानवत्]
करण भाग 3
41 [गुणस्थानवत् 43 - वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र काययोग]
9.अनिवृत्ति-1 [गुणस्थानवत्] |13 [गुणस्थानवत]
करण भाग 4
42 [गुणस्थानवत् 44 - वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र काययोग]
[28]
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आस्रव अभाव
गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति
आस्रव 9.अनिवृत्ति-1 [गुणस्थानवत्] | 12 [गुणस्थानवत्]
करण
43 [गुणस्थानवत् 45 - | वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र काययोग]
भाग 5
७.अनिवृत्ति- 1 गुणस्थानक्त]
11 [गुणस्थानवत्]
करण
भाग 6
44 गुणस्थानक्त्46वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र काययोग] 45 [गुणस्थानवत् 47 - वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र काययोग]
10. सूक्ष्य |1 [गुणस्थानवत्] |10 [गुणस्थानवत्] साम्पराय संयत
11.उपशंत
०
गुणस्थानक्त
मोह
45 [गुणस्थानवत्48वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र काययोग]
12. क्षीण |4 [गुणस्थानवत]
[गुणस्थानवत्]
मोह
46 [गुणस्थानवत् 48 - वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र काययोग]
| 13. सयोग |7 [गुणस्थानवत्]
केवली
7 [गुणस्थानवत्]
| 48 [गुणस्थानवत् 50वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र काययोग
14. अयोग
केवली
55 [गुणस्थानवत् 57 - वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र काययोग
[29]
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संदृष्टि नं. 8
भोगभूमिज मनुष्य आस्रव 52 भूमिभूमिज मनुष्य के 52 आम्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - 5 मिथ्यात्व, 12 अविरति, योग 11 (मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 3 - औदारिक,
औदारिकमिश्र, और कार्मणकाययोग), कषाय 24 (कषाय 16, नोकषाय 8 - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद)। गुणस्थान मिथ्यात्व आदि चार होते हैं।
गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति
आस्रव
। आस्रव अभाव 1. मिथ्यात्व |5[5 मिथ्यात्व 152[5 मिथ्यात्व, 12अविरति,
योग 11 (मनोयोग 4, वचनयोग 14, काययोग 3 - औदारिक,
औदारिकमिश्रऔर कार्मण), कषाय 24 (कषाय 16, नोकषाय 8 - हास्य, रति, अरति, शोक,
भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद)] 2. सासादन 4 [अनंतानुबंधी 4 47 [उपर्युक्त 52 - 5 मिथ्यात्व] | 5 [5 मिथ्यात्व]
कषाय]
3.मिश्र
|41 [उपयुत47-6 (4 अनंतानुबंधी, औदारिकमिश्र और कार्मणकाययोग)]
11[5 मिथ्यात्व, 4 अनंतानुबंधी, औदारिकमिश्र और कार्मणकाययोग]
4.अविस्त
43 [मिथ्यात्वगुणस्थानके52-9 | 9[5 मिथ्यात्व, (5 मिथ्यात्व, अनंतानुबंधी 4)] | 4 अनंतानुबंधी]
| 7 [अप्रत्याख्यान क्रोध आदि 4,
औदारिकमिश्र और कार्मणकाययोग, त्रस अविरति]
[30]
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संदृष्टि नं.9
लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य आस्रव 42 लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य के 42 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - 5 मिथ्यात्व, मन को छोड़कर 11 अविरति, योग 3 (औदारिक, औदारिकमिश्र और कार्मणकाययोग), कषाय 23 (कषाय 16, नोकषाय 7 - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नपुंसकवेद)। गुणस्थान एक मिथ्यात्व मात्र ही होता है। गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति आस्रव
आस्रव अभाव 1.मिथ्यात्व
142[5 मिथ्यात्व, 11अविरति, योग 3 (औदारिक, औदारिकमिश्र और कार्मणकाययोग), कषाय 23 (कषाय 16, नोकषाय 7- हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नपुंसक्वेद)]
देवे हारोरोलियंजुगलं संद च णत्थि तत्थेव। देवाणं देवीणं णेवित्थी व पुंवेदो।।32||
देवेषु आहारकौदारिकयुगले षंढ़ च नास्ति तत्रैव । देवानां देवीनां नैव स्त्री नैव पुंवेदः ॥ अर्थ - देवगति में देवों में आहारकद्विक, औदारिकद्विक और नपुंसकवेद नहीं होता है। देवों में स्त्रीवेद तथा देवियों में पुंवेद नहीं होता है।
भवणतिकप्पित्त्थीणं असंजदठाणे ण होइ कम्मइयं। वेगुध्वियमिस्सो वि य तेसिं पुणु सासणे छेदो ||33|| भवनत्रिकल्पस्त्रीणां असंयतस्थाने न भवति कार्मणं । वैक्रियिकमिश्रमपि च तयोः पुनः सासादने व्युच्छेदः ॥
1. आहारकयुगलमौदारिकयुगलं च। 2. देवानां स्त्रीवेदो नास्ति देवीनां च पुंवेदो नास्ति।
[31]
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________________
अर्थ - भवनत्रिक तथा कल्पवासी स्त्रियों के असंयत गुणस्थान में कार्मण काययोग तथा वैक्रियिकमिश्र काययोग नहीं होता है क्योंकि द्वितीय सासादन गुणस्थान में ही उनकी व्युच्छित्ति हो जाती है।
एवं उवरिं णवपणअणुदिसणुत्तरविमाणजादा जे। ते देवा पुणु सम्मा अविरदठाणुव्व णायव्वा ।।34|| एवं उपरि नवपंचानुदिशानुत्तरविमान जाता ये। ते देवाः पुनः सम्यक्त्वा अविरतस्थानवज्ज्ञातव्याः॥
अर्थ - ऊपर नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमानवासी देवों में जो देव होते हैं। उनके आस्रव देवगति में चतुर्थ गुणस्थान के आस्रव के समान जानना चाहिए क्योंकि वहाँ चतुर्थ गुणस्थान मात्र ही पाया जाता है।
संदृष्टि नं. 10 भवनत्रिक एवं कल्पवासीस्त्री आस्रव 52 भवनत्रिक एवं कल्पवासी स्त्रियों के 52 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - 5 मिथ्यात्व, 12 अविरति, योग 11 (मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 3 -
वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, और कार्मणकाययोग), कषाय 24 (कषाय 16, नोकषाय 8 - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद)। गुणस्थान मिथ्यात्व आदि चार होते हैं। गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति आस्रव
आस्रव अभाव 1. मिथ्यात्व |5 [5 मिथ्यात्व] |52 [5 मिथ्यात्व, 12 अविरति,
योग 11 (मनोयोग 4, वचनयोग 4,काययोग 3-वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र,और कार्माणकाययोग), कषाय 24 (कषाय 16, नोकपाय8हास्य, रति,अरति,शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद,फेद
[32]
Page #42
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गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति
आस्रव
आस्रव अभाव 2.सासादन |6 [अनंतानुबंधी 47 [उपर्युक्त 52 - 5 मिथ्यात्व] /5 [5 मिथ्यात्व
4कषाय, वैक्रियिकमिश्रऔर
कार्मणकाययोग 3.मिश्र
41 [उपर्युक्त 47-6 | 11 [5 मिथ्यात्व, (4अनंतानुबंधी, वैक्रियिकमिश्र और 4 अनंतानुबंधी, कार्मणकाययोग)]
औदारिकमिश्र, और
कार्मणकाययोग] अविरत 6 [अप्रत्याख्यान 41 [मिथ्यात्व गुणस्थान के 52- 11[5 मिथ्यात्व,
| 11(5 मिथ्यात्व, अनंतानुबंधी 4, 4अन्तानुबंधी, वैक्रियिककाययोग,
वैक्रियिकमिश्रऔर कार्मणकाययोग)] वैक्रियिकमिश्र और त्रस अविरति]
कर्मणकाययोग
क्रोध आदि4,
संदृष्टि नं. 11
सौधर्मादि से ग्रैवेयक पर्यन्त आस्रव 51 सौधर्मादि से ग्रैवेयक पर्यन्त 51 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - 5 मिथ्यात्व, 12 अविरति, योग 11 (मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 3 - वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, और कार्मणकाययोग), कषाय 23 (कषाय 16, नोकषाय 7 - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुंवेद) । गुणस्थान मिथ्यात्व आदि चार होते हैं। गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति
आम्रव
आस्रव अभाव 5 [5 मिथ्यात्व] 51 [5 मिथ्यात्व, 12 अविरति, मिथ्यात्व
योग 11 (मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 3 - वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोग). कषाय 23 (कषाय16,नोक्षाय7हास्य, रति,अरति,शोक, भय, जुगुप्सा,
2. सासादन 4 [अनंतानुबंधी
14 कषाय]
46 [उपर्युक्त 51-5 मिथ्यात्व]5 [5 मिथ्यात्व]
[33]
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गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति
आसव | 3. मिश्र
40 [उपर्युक्त 46-6 (4अनंतानुबंधी, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोग)]
आसव अभाव 11 [5 मिथ्यात्व, 4 अनंतानुबंधी, औदारिकमिश्र और कार्मणकाययोग]
4. अविरत 18 [अप्रत्याख्यान 142 [12 अविरति, 11 योग (मनोयोग 49 [5 मिथ्यात्व,
क्रोध आदि 4, क्चनयोग4, काययोग 3 - वैक्रियिकद्विक, 4 अनंतानुबंधी] वैक्रियिककाययोग, कार्मण), अप्रत्याख्यानादि 12 कषाय, त्रस अविरति, हारयादि6 नोकषाय, पुवेद)] वैक्रियिकमिश्रऔर कार्मणकाययोग]
संदृष्टि नं. 12 नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर आम्रव 42 नव अनुदिश और पाँच अनुत्तरों में 42 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - 12 अविरति, योग 11 (मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 3 - वैक्रियिक, वैक्रियिक मिश्र, और कार्मणकाययोग), कषाय 19 (अप्रत्याख्यान आदि कषाय 12, नोकषाय 7 - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुंवेद) । गुणस्थान एक मात्र अविरत होता है। गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति 4.अविस्त
42 [12 अविरति, योग 11 (मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 3 - वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोग), कषाय 19 (अप्रत्याख्यान आदिक्षाय 12,नोक्षाय 7- हास्य, रति, अरति,शोक,भय, जुगुप्सा,पुद]
आस्रव
आस्रव अभाव
इति गतिमार्गणा समाप्ता।
[34]
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पुंवेदित्थिविगुव्वियहारदुमणरसणचदुहि एयक्खे । मणचदुवयणचदुहि य रहिदा अडतीस ते भणिदा ।।35।। पुंवेदस्त्रीवैक्रियिकाहारकद्धिकमनोरंसनाचतुर्भि: एकाक्षे । मनचतुर्वचनतुर्मिश्च रहिता अष्टात्रिंशत्ते भणिताः॥ अर्थ - एकेन्द्रिय जीवों में पुंवेद, स्त्रीवेद, वैक्रियिकद्विक, आहारकद्विक, मन, रसना इन्द्रिय, घ्राण इन्द्रिय, चक्षु इन्द्रिय और श्रोत्र इन्द्रिय अविरति, चार मनोयोग तथा चार वचनयोग इन उन्नीस आम्रवों के बिना शेष अड़तीस आस्रव कहे गये हैं।
एयक्खे जे उत्ता ते कमसो अंतभासरसणेहिं। घाणेण य चक्खूहिं य जुत्ता वियलिंदिए णेया ।।36।। एकाक्षे ये उक्तास्ते क्रमशः अन्तभाषारसनाभ्यां । घ्राणेन च चक्षुभ्या॑ च युक्ता विकलेन्द्रिये ज्ञातव्याः॥
अर्थ - द्वीन्द्रियों में रसनेन्द्रिय अविरति व अनुभय वचनयोग को उपर्युक्त एकेन्द्रिय जीवों के अड़तीस आम्रवों में मिलाने से चालीस आम्रव होते हैं। त्रीन्द्रिय जीवों में घ्राणेन्द्रिय संबंधी अविरति मिलाने से इक्तालीस आस्रव तथा चतुरिन्द्रिय जीवों में चक्षुरिन्द्रिय की अविरति मिलाने पर ब्यालीस आम्रव होते है।
इगविगलिंदियजणिदे सासणठाणे ण होइ ओरालं। इणमणुभयं च वयणं तेसिं मिच्छेव वोच्छेदो।।37||
1. मनोरसनाघ्राणचक्षुः श्रोत्राविरतिभः। 2. अनुभयभाषा।
3. द्वीन्द्रिये अनुभयवचनरसनेन्द्रियाभ्यां युक्ताः, त्रीन्द्रिये ताभ्यां सह घ्राणेन सहिता: चतुरिन्द्रिये तैः सह चक्षुरिन्द्रियेण युक्ताः।
[35]
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एकविकलेन्द्रियजाते सासादनस्थाने न भवति औदारिकं । एषामनुभयं च वचनं तयोः मिथ्यात्वे एव व्युच्छेदः ॥
अर्थ - एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों के सासादन गुणस्थान में औदारिक काययोग और अनुभय वचनयोग नहीं होता है क्योंकि इन दोनों की मिथ्यात्व गुणस्थान में व्युच्छित्ति हो जाती है। यहाँ पर जो मिथ्यात्व गुणस्थान में अनुभय वचनयोग की व्युच्छित्ति कही गई है, वह विकलेन्द्रियों के ही समझना चाहिए। क्योंकि एकेन्द्रिय जीवों के वचनयोग नहीं होता है।
संदृष्टि नं. 13
एकन्द्रिय आस्रव 38 एकन्द्रिय के 38 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - 5 मिथ्यात्व, 7 अविरति (षट्काय एवं स्पर्शन इन्द्रिय), योग 3 (औदारिक, औदारिक मिश्र और कार्मण काययोग), कषाय 23 (कषाय 16, नोकषाय 7 - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नपुंसकवेद)। गुणस्थान मिथ्यात्व आदि दो होते हैं। गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति
आस्रव
आस्रव अभाव 1. मिथ्यात्व 6 [5 मिथ्यात्व, 38 [5 मिथ्यात्व, 7 अविरति औदारिककाययोग] (षट्काय एवं स्पर्शन इन्द्रिय),
योग 3 (औदारिक, औदारिकमिश्रा और कार्मणकाययोग), कषाय 23 (कषाय 16, नोक्षाय 7- हास्य, | रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा,
नपुंसक्वेद)]] 2. सासादन 4 [अनंतानुबंधी 32 [उपर्युक्त 38-6 (5 मिथ्यात्व, 6 [5 मिथ्यात्व, 4 कषाय] औदारिककाययोग)]
औदारिककाययोग]
संदृष्टि नं. 14
द्वीन्द्रिय आस्रव 40 द्वीन्द्रिय के 40 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - 5 मिथ्यात्व, 8 अविरति (षट्काय एवं स्पर्शन, रसना इन्द्रिय), योग 4 (अनुभय वचन, औदारिक, औदारिक मिश्र, और कार्मणकाययोग), कषाय 23 (कषाय 16, नोकषाय 7 -
[361
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हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नपुंसकवेद) । गुणस्थान मिथ्यात्व आदि दो होते हैं।
आस्रव अभाव
गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति आस्रव । 1. मिथ्यात्व 7 [5 मिथ्यात्व, 40 [5 मिथ्यात्व, 8 अविरति
अनुभय वचनयोग, (षट्काय एवं स्पर्शन, रसना औदारिककाययोग] इन्द्रिय), योग 4 (अनुभय वचन,
औदारिक, औदारिकमिश्र और कर्मणकाययोग), कषाय 23 (कषाय 16, नोकपाय7 - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा,नपुंसक्वेद
|2. सासादन 4 [अनंतानुबंधी
4 कषाय
|33 [उपर्युक्त 40-7 33 [उपर्युक्त 40-7
7 [5 मिथ्यात्व, 1(5 मिथ्यात्व, अनुभय वचनयोग, अनुभय वचनयोग, औदारिककाययोग)]]
औदारिककाययोग]
संदृष्टि नं. 15
त्रीन्द्रिय आस्रव 41 त्रीन्द्रिय के 41 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - 5 मिथ्यात्व, 9 अविरति (षट्काय एवं स्पर्शन, रसना, घ्राण इन्द्रिय), योग 4 (अनुभयवचन, औदारिक,
औदारिक मिश्र, और कार्मणकाययोग), कषाय 23 (कषाय 16, नोकषाय 7 - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नपुंसकवेद)। गुणस्थान मिथ्यात्व आदि दो होते हैं।
आस्रव अभाव ।
गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति
आस्रव 1. मिथ्यात्व 7 [5 मिथ्यात्व, 41 [5 मिथ्यात्व, 9 अविरति
अनुभय वचनयोग, (षट्काय एवं स्पर्शन, रसना, औदारिककाययोग] घाण इन्द्रिय), योग 4 (अनुभय
वचन, औदारिक, औदारिकमिश्र और कार्मणकाययोग), कषाय 23 (कषाय 16, नोक्षाय 7- हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नपुंसकवेद]
[31
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गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति आस्रव | आस्रव अभाव । 2. सासादन | 4 [अनंतानुबंधी |34 [उपर्युक्त 41-7 7 [5 मिथ्यात्व, अनुभय |4 कषाय] |(5 मिथ्यात्व, अनुभय वचनयोग, वचनयोग,
औदारिककाययोग)] औदारिककाययोग]
संदृष्टि नं. 16
चतुरिन्द्रिय आस्रव 42 चतुरिन्द्रिय के 42 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - 5 मिथ्यात्व, 10 अविरति (षट्काय एवं स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु इन्द्रिय), योग 4 (अनुभय वचन,
औदारिक, औदारिक मिश्र, और कार्मणकाययोग), कषाय 23 (कषाय 16, नोकषाय 7 - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नपुंसकवेद)। गुणस्थान मिथ्यात्व आदि दो होते हैं।
आस्रव अभाव
गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति
आसव 1. मिथ्यात्व 7 [5 मिथ्यात्व, 42 [5 मिथ्यात्व, 10 अविरति
अनुभयवचनयोग, (षट्काय एवं स्पर्शन, रसना, औदारिककाययोग] घ्राण, चक्षु इन्द्रिय), योग 4
(अनुभय क्चन, औदारिक, औदारिकमिश्र और कार्मणकाययोग), कषाय 23 (कपाय 16, नोकषाय 7- हास्य, रति, अरति,शोक, भय, जुगुप्सा, नपुंसकवेद)]
2. सासादन 4 [अनंतानुबंधी
4 कषाय]
35 [उपर्युक्त 42-7 (5 मिथ्यात्व, अनुभयवचनयोग, औदारिककाययोग)
17[5 मिथ्यात्व, अनुभयवचनयोग, औदारिककाययोग]
पंचेदियजीवाणं तसजीवाणं च पच्चया सव्वे। पुढ़वीआदिसु पंचसु एइंदिय कहिद अडतीसा ।।38|| पंचेन्द्रियजीवानां त्रसजीवानां च प्रत्ययाः सर्वे। पृथिव्यादिषु पंचसु एकेन्द्रिये कथिता अष्टात्रिंशत् ॥
[38]
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अर्थ त्रसों और पंचेन्द्रिय जीवों में सभी आम्रव (प्रत्यय) गुणस्थानवत् जानना चाहिए। पृथ्वी आदि पंच स्थावरों में एकेन्द्रिय जीवों में कथित अड़तीस आस्रव जानना चाहिए ।
-
• संदृष्टि नं. 17 पंचेन्द्रिय आस्रव 57
पंचेन्द्रिय के 57 आम्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - 5 मिथ्यात्व, 12 अविरति, 15 योग, कषाय 25 ( कषाय 16, नोकषाय 9 ) । गुणस्थान मिथ्यात्व आदि चौदह होते हैं । इसकी संदृष्टि गुणस्थान के समान जानना चाहिये। (देखें संदृष्टि नं. 1 )
गुणस्थान 1. मिथ्यात्व
12. सासादन
3. मिश्र
4. अविरत
15. देशविरत
6. प्रमत्तविरत
7. अप्रमत्तविरत
8. अपूर्वकरण
9. अनिवृत्तिकरण भाग 1
भाग 2
भाग 3
भाग 4
भाग 5
भाग 6
10. सूक्ष्यसाम्परायसंयत
11. उपशांतमोह
12. क्षीणमोह
13. सयोगकेवली
14. अयोगकेवली
आस्रव व्युच्छि
5
4
0
7
15
2
0
6
1
1
1
1
1
1
1
0
4
7
0
आसव
55
50
43
46
37
24
22
22
16
15
14
13
12
11
10
9
9
7
0
आस्रव अभाव
2
7
14
11
20
33
35
35
41
42
43
44
45
46
47
48
48
ཐ|8
50
57
[39]
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________________
•संदृष्टि नं. 18 पृथ्वीकाय, जलकाय एवं वनस्पतिकाय 38 पृथ्वीकाय, जलकाय एवं वनस्पतिकाय में 38 आम्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - 5 मिथ्यात्व, 7 अविरति (षट्काय एवं स्पर्शन इन्द्रिय), योग 3 (औदारिक,
औदारिकमिश्र और कार्माणकाययोग), कषाय 23 (कषाय 16, नोकषाय 7 - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नपुंसकवेद) । गुणस्थान मिथ्यात्व आदि दो होते हैं। गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति
आस्रव अभाव 1.मिथ्यात्व | 6[5 मिथ्यात्व, 38 [5 मिथ्यात्व, 7 अविरति
औदारिकमिश्र (षट्झाय एवंस्पर्शन इन्द्रिय), काययोग] योग 3 (औदारिक, औदारिकमिश्र
और कार्मण काययोग), कषाय 23 (कषाय 16, नोकषाय 7 - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नपुंसक्वेद)] 32 [उपर्युक्त38-6
6[5 मिथ्यात्व, 4कपाय (5 मिथ्यात्व, औदास्किमिश्र)] | औदारिकमिश्र
आम्रव
2.सासादन
•संदृष्टि नं. 19
अग्निकाय एवं वायुकाय 38 अग्निकाय एवं वायुकाय में 38 आम्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - 5 मिथ्यात्व, 7 अविरति (षट्काय एवं स्पर्शन इन्द्रिय), योग 3 (औदारिक, औदारिक मिश्र
और कार्मणकाययोग), कषाय 23 (कषाय 16, नोकषाय 7 - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नपुंसकवेद) गुणस्थान मात्र एक मिथ्यात्व ही होता
आस्रव
आस्रव अभाव
गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति 1.मिथ्यात्व | 7 [5 मिथ्यात्व,
औदारिकमिश्र, कार्मणकाययोग]
[उपयुक्त
[40]
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________________
•संदृष्टि नं. 20
त्रसकाय आस्रव 57 त्रसकाय के 57 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - 5 मिथ्यात्व, 12 अविरति, 15 योग, कषाय 25 (कषाय 16, नोकषाय 9)। गुणस्थान प्रथम से लेकर चौदह होते हैं। इसकी संदृष्टि गुणस्थान के समान जानना चाहिये। (देखें संदृष्टि नं. 1)
गुणस्थान
आस्रव व्युच्छित्ति
आसव
आस्रव अभाव
-
1. मिथ्यात्व
55
2
2. सासादन
43
3. मिश्र 4. अविरत 5. देशविरत
46
37
२०
24
33
22
35
6. प्रमत्तविरत 17. अप्रमत्तविरत 8. अपूर्वकरण 9.अनिवृत्तिकरण भाग 1
22
35
16
भाग 2
15
भाग 3
43
-
भाग4
13
44
भाग 5
12
45
भाग 6
46
10
47
o
48
+
10. सूक्ष्यसाम्परायसंयत 11. उपशांतमोह 12. क्षीणमोह 13. सयोगकेवली 14. अयोगकेवली
48
50
57
[41]
Page #51
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________________
हारदुगं वज्जित्ता जोगाणं तेरसाणमेगेगं। जोगं पुणु पक्खित्ता तेदाला इदरयोगूणा ।।3।।
आहारदिकं वर्जयित्वा योगनां त्रयोदशानां एकैकं । योगं पुनः प्रक्षिप्य त्रिचत्वारिंशत् इतरयोगोनाः ।। अर्थ - आहारक और आहारकमिश्र काययोग को छोड़कर शेष तेरह योगों में निज एक-एक योग जोड़कर शेष चौदह योगों से रहित (57-14) = 43 बन्ध प्रत्यय होते है, अर्थात् मिथ्यात्व 5, अविरति 12, कषाय 25 और स्वकीय योग = 43)
संदृष्टि नं. 21 असत्योभय मनोवचन योग आस्रव 43
असत्योभय मनोवचन योग में 43 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - मिथ्यात्व 5, अविरति 12, स्वकीय योग 1, कषाय 16, नोकषाय 9 । गुणस्थान मिथ्यात्व आदि बारह होते हैं।
आस्रव अभाव
-
-
गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति
आस्रव 1.मिथ्यात्व मिथ्यात्व5] 43 [मिथ्यात्व 5, अविरति 12,
स्वकीय योग 1 कषाय 16,
नोकपाय) 2.सासादन 4[अनन्तानुबन्धी 4] | 38 [उपर्युक्त 43 - 5 मिथ्यात्व] 3.मिश्र
34 [उपर्यंत 38
-अनन्तानुबन्धी4] 4.अविस्त 5[अप्रत्याख्यान4, | अ[उपर्युत]
सअविरति 5.देशविस्त
| 15 [पृथ्वीकाय आदि 29 [उपर्युक्त 4-5 11अविरति, (अप्रत्याख्यान 4, सअविरति)] प्रत्याख्यानकषाय
5 [मिथ्यात्व 5] 9 [मिथ्यात्व 5, अनन्तानुबन्धी4] 9[उपर्युक्त
14[उपर्युत +5 (अप्रत्याख्यान,क्रोधादि 4,सअविरति)]
[42]
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गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति
आस्रव
आस्रव अभाव 6.प्रात्त
14[1 स्वकीय योग, संज्वलन कषाय 4, | 29 [मिथ्यात्व 5, नोकषाय
12 अविरति,
अनन्तानुबन्धीआदि 12] 7.अप्रमत 14[उपर्युक्त
29 [उपयुक्त संथम 18 अपूर्वकरण 6 [हास्यादि नोकषाय] 14[उपर्युक्त]
29 [उपयुक्त ३ अनिवृत्ति- 1[नपुंसक्वेद 1स्वकीय योग, संज्वलन4, 35 [उपर्युक्त 29+ स्त्रीवेद, पंवेद, नपुंसक्वेद
हास्यादि नोकपाय भाग1 १ अनिवृत्ति- 1 [स्त्रीवेद 7 [उपर्युक्त 8-नपुंसकवेद] 36 [उपर्युक्त 35+ करण
नपुंसकवेद] भाग2 १ अनिवृत्ति- वेद 6 [उपर्युक्त 7-स्त्रीवेद] 37 [उपर्युक्त 36+ स्त्रीवेद]
करण भP3
करण
9 अनिवृत्ति- 1[ संज्वलन क्रोध]
5[उपर्युक्त6-पुद]
| 38 [उपर्युक्त 37 + पुद]
करण भाग4
39 [उपर्युक्त 38 +ोध]
७.अनिकृति- 1[संज्वलन मान] |4 [उपर्युक्त 5-क्रोध]
करण भाग
9.अनिवृत्ति- 1[ संज्वलन माया]
[उपर्युक्त 4-मान]
| 40 [उपर्युत 39 + मान]
करण
भाग6
10.सूक्ष्य
साम्पराय
1[संज्वलनलोभ]
[उपर्युक्त3-माया]
|41 [उपर्युक्त 40 +माया
11.उपशंतमह
स्वकीय योग]
| 42[उपर्युक्त 41+लोभी
12.क्षीणमह
स्विकीय योग]
स्वकीय योग]
| 42[उपर्युक्त
[43]
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संदृष्टि नं. 22
सत्य अनुभय मन-वचन योग औदारिक काययोग आस्रव 43
इस
सत्य अनुभय मन-वचन एवं औदारिक काययोग में 43 आस्रव होते हैं जो प्रकार हैं - मिथ्यात्व 5, अविरति 12, स्वकीय योग 1, कषाय 16, नोकषाय 9 । गुणस्थान मिथ्यात्व आदि तेरह होते हैं । इसकी बारहवें गुणस्थान तक की व्यवस्था संदृष्टि नं. 21 के समान जानना चाहिये । ( दे. संदृष्टि नं. 21 )
आस्रव व्युच्छित्ति
आस्रव
गुणस्थान
1 मिथ्यात्व
12 सासादन
मिश्र
4
अविस्त
15 देशविस्त
६ प्रमत्तसंयम
7. अप्रमत्तसंयम
8 अपूर्वकरण
२ अनिवृत्तिकरण भाग 1
भाग 2
9.
9.
9.
9.
9.
भाग 3
भाग 4
भाग 5
भाग 6
10. सूक्ष्यसाम्पराय
11. उपशांतमोह
12 क्षीणमोह
13. संयोगकेवली
5
4
0
5
15
0
०
6
1
1
1
1
1
1
1
0
0
1 [ स्वकीय योग]
43
38
34
34
29
14
14
14
8
7
6
5
4
3
2
1
1 [ स्वकीय योग ]
1 [ स्वकीय योग]
आस्रव अभाव
0
5
9
9
14
222
29
29
29
35
36
37
38
39
40
41
42
42
42 [उपर्युक्त ]
[44]
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ओरालमिस्स साणे संढत्थीणं च वोच्छिदी होदि । वेगुव्वमिस्स साणे इत्थीवेदस्स वोच्छेदो ॥40॥
औदारिकमिश्रस्य सासादने षंढ़स्त्रियोश्च व्युच्छित्तिः भवति । वैक्रियिकमिश्रस्य सासादने स्त्रीवेदस्य व्युच्छेदः ॥
अर्थ - औदारिक मिश्रकाययोग में सासादन गुणस्थान में नपुंसक वेद और स्त्रीवेद की व्युच्छित्ति हो जाती है। वैक्रियिकमिश्र काययोग में सासादन गुणस्थान में स्त्रीवेद के आस्रव की व्युच्छित्ति हो जाती है ।
तेसिं साणे संढं णत्थि हु सो होइ अविरदे ठाणे । कम्मइए विदियगुणे इत्थीवेदच्छिदी होइ ॥ 41||
तेषां सासादने षंढ़ नास्ति हु स भवति अविरते स्थाने । कार्मणे द्वितीयगुणे स्त्रीवेदच्छित्तिः भवति ॥
अर्थ - वैक्रियिकमिश्र काययोग में सासादन गुणस्थान में नपुंसकवेद नहीं पाया जाता है। तथा चतुर्थ गुणस्थान में नपुंसकवेद होता है। कार्मण योग में द्वितीय गुणस्थान में स्त्रीवेद की व्युच्छित्ति हो जाती है।
हस्सादीणोकसायछकं
च ।
बारस आहारगे जुम्मे ॥42||
संजलणं पुवेयं णियएक्कजोग्गसहिया
पुवेद
संज्वलनं निजैकयोगसहिता
व्दादश
अर्थ - आहारक, आहारक मिश्र काययोग में चारों संज्वलन कषाय, पुंवेद, छ: हास्यादि नोकषाय एवं स्वकीय एक योग सहित ( 4 + 7 + 1) बारह आम्रव होते हैं ।
हास्यादिनोकषायषट्कं
आहारके
च ।
युग्मे ॥
[45]
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वजित्ता
पुंवेदे थीसंढ़ इत्थीवेदे हारदु पुंसंढ़ च
पुंवेदे स्त्रीषंदाभ्यां वर्जिता शेषप्रत्यया भवन्ति । स्त्रीवेदं आहारद्धिकेन पुंषंदाभ्यां च वर्जिता सर्वे ॥
अर्थ - पुंवेद में स्त्रीवेद और नपुंसकवेद को छोड़कर शेष सभी पचपन आस्रव होते हैं। स्त्रीवेद में आहारकद्विक, पुंवेद और नपुंसकवेद को छोड़कर शेष सभी तिरेपन आस्रव (प्रत्यय) होते हैं ।
विशेष - कर्मकाण्ड में पुंवेद में सत्तावन, स्त्री तथा नपुंसकवेद में पचपन आस्रव कहे गये हैं, जो कि सही विदित होते हैं । (विशेष देखें कर्मकाण्ड आदिमति माता जी का अनुवाद पृष्ठ 717)
औदारिकमिश्रकाययोग में 43 आम्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - मिथ्यात्व 5, अविरति 12, औदारिकमिश्रकाययोग, कषाय 16, नोकषाय 9 । गुणस्थान 1, 2, 4, 13 ये चार होते हैं।
|गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति
1. मिथ्यात्व
5 [ मिथ्यात्व 5 ] .
2. सासादन
सेसपच्चया होति । वज्जिदा सव्वे ॥43॥
4. अविस्त
13. सयोग वेचली
संदृष्टि नं. 23
औदारिकमिश्रकाययोग आस्रव 43
6 [ अनन्तानुबन्धी 4, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद ]
आसव
43 [ मिथ्यात्व 5, अविरति 12, औदारिकमिश्रकाययोग, कषाय 16, | नोकषाय 9]
38 [ उपर्युक्त 43 - 5 मिथ्यात्व ]
31 [ अप्रत्याख्यानादि 12 | 32 [ उपर्युक्त 38 - 6 (अनन्तानुबन्धी4, कषाय, हास्यादि 6 स्त्रीवेद, नपुंसकवेद) ]
नोकषाय, पुंवेद
अविरति 12]
1
[औदारिकमिश्रकाययोग]
1 [ औदारिकमिश्रकाययोग]
आस्रव अभाव
0
5 [ मिथ्यात्व 5 ]
11 [ मिथ्यात्व 5, अनन्तानुबन्धी 4, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद]
42 [उपर्युक्त 11 + अविरतगुण स्थान व्युच्छिन्न 31 आसव ]
[46]
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संदृष्टि नं. 24
वैक्रियिककाययोग आस्रव 43 वैक्रियिककाययोग में 43 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - मिथ्यात्व 5, अविरति 12, वैक्रियिककाययोग, कषाय 16, नोकषाय 9। गुणस्थान मिथ्यात्व आदि चार होते
गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति
आस्रव
आस्रव अभाव
1.मिथ्यात्व | 5 [मिथ्यात्व 5]
4[अनन्तानुबन्धी 4]
2.सासादन 3.मिश्र
43 [मिथ्यात्व 5,अविरति 12, वैक्रियिककाययोग, कषाय 16, नोकषाय 38 [उपर्युक्त 43 - मिथ्यात्व 5] 5 मिथ्यात्व5] 34 [उपर्युत38-अनन्तानुबन्धी4] | 9 [मिथ्यात्व 5,
| अनन्तानुबन्धी4] 34 [उपयुक्त
9 [उपर्युक्त
14.अविस्त
6 अप्रत्याख्यान4, वैक्रियिककाययोग, त्रस अविरत]
संदृष्टि नं. 25
वैक्रियिकमिश्रकाययोग आस्रव 43 वैक्रियिकमिश्रकाययोग में 43 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - मिथ्यात्व 5, अविरति 12, वैक्रियिकमिश्रकाययोग, कषाय 16 , नोकषाय 9। गुणस्थान 1, 2, 4 ये तीन होते हैं। गुणस्थान | आस्रव व्युच्छित्ति आस्रव
आस्रव अभाव 1. मिथ्यात्व | 5 [मिथ्यात्व 5] | 43 [मिथ्यात्व 5,अविरति 12,
वैक्रियिकमिश्रकाययोग, कषाय 16,
नोकषाय9] 2. सासादन | 5 [अनन्तानुबन्धी4, 37[उपर्युक्त 43-6 (नपुंसकचेद, 16 मिथ्यात्व 5, नपुंसकवेद]
स्त्रीवेद | मिथ्यात्व5)] 4.अस्ति 6[अप्रत्याख्यान 4, 33[उपर्युक्त 38-5 (अनन्तानुबन्धी | 10 [मिथ्यात्व 5, वैक्रियिककाययोग, 4, स्त्रीवेद)]
अनन्तानुबन्धी4, स्त्रीवेद सअविरति]
[47]
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संदृष्टि नं. 26 आहारक - आहारकमिश्रकाययोग आम्रव 12 आहारक - आहारकमिश्रकाययोग में 12 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - संज्वलन कषाय 4, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुंवेद, स्वकीय योग । गुणस्थान एक मात्र छटवां होता है। गुणस्थान आम्रव व्युच्छित्ति
आस्रव अभाव 6.प्रमत्तसंयम
12 [संज्वलन कषाय 4, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुवेद, स्वकीय योग]
आस्रव
-
-
संदृष्टि नं. 27
कार्मणकाययोग आस्रव 43 कार्मणकाययोग में 43 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - मिथ्यात्व 5, अविरति 12, कार्मणकाययोग, कषाय 16, नोकषाय 9। गुणस्थान 1, 2, 4, 13 ये चार होते हैं। गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति आस्रव
आस्रव अभाव 1.मिथ्यात्व |5[मिथ्यात्व 5] 43 [मिथ्यात्व 5,अविरति 12,
कार्मणकाययोग, कषाय 16,
नोकषाय 9] 15 [अनन्तानुबन्धी4,38 [उपर्युत43-5
5 [मिथ्यात्व 5] स्त्रीवेद] मिथ्यात्व] 14.अविस्त | 32[अप्रत्याख्यान आदि 33 [उपर्युक्त 38-5 | 10 [मिथ्यात्व,
| 12 कषाय, हास्यादि6 (अनन्तानुबन्धी 4, स्त्रीवेद)] अनन्तानुबन्धी4, स्त्रीवेद नोकषाय, वेद, नपुंसक्वेद,
अविरति12] | 13.सयोग 1 [कर्मणकाययोग] 1 [कर्मणकाययोग]
42 [उपर्युत 10 + अविस्तगुण केवली
- स्थान केव्युच्छिन 32 आसव
2.सासादन
-
[48]
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2सासादन
संदृष्टि नं. 28
पुंवेद आस्रव 55 पुंवेद में 55 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - 5 मिथ्यात्व, 12 अविरति, 15 योग, कषाय 23 (कषाय 16, हास्य आदि 6 नोकषाय एवं पुंवेद) । गुणस्थान मिथ्यात्व आदि 9 होते हैं। गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति
आस्रव
आस्रव अभाव | 1. मिथ्यात्व |5[5 मिथ्यात्व 153[5 मिथ्यात्व, 12 अविरति, योग 13 /2[आहारक, आहारकमिश्र
(मनयोग4,क्चनयोग4,काययोग5- काययोग औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्रऔरकार्मण), कषाय 23 (कषाय 16, नोकषाय 7-हास्य, रति,
अरति,शोक, भय,जुगुप्सा, पुवेद] 4[अनंतानुबंधी4
148[12अविरति, योग 13 (मनयोग4, 7 [5 मिथ्यात्व, आहारक, | कषाय]
वचनयोग4,काययोग 5-औदारिक, आहारकमिश्रकाययोग) औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण), कषाय 23 (कषाय 16, नोकषाय7 - हास्य, रति, अरति, शोक,
भय,जुगुप्सा,पुवेद] 3.मिश्र 41 [उपर्युत48-7
145 मिथ्यात्व, (4अनंतानुबंधी, औदारिकमिश्र, 4अनंतानुबंधी, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोग)] आहारक,आहारकमिश्र,
वैक्रियिकमिश्रऔर
कार्मणकाययोग] 4.अविस्त |9[अप्रत्याख्यान 44[12 अविरति, योग 13 (मनयोग4,11[5 मिथ्यात्व,
क्रोधआदि4, बस क्चनयोग 4, काययोग 5-औदारिक, 4अनंतानुबंधी, आहारक,
अविरति, औदारिक औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र | आहारकमिश्र काययोग] मिश्र, वैक्रियिक, और कार्मण), अप्रत्याख्यानादि 12
वैक्रियिकमिश्रऔर कषाय, नोकषाय - हास्य, रति,
| कार्मणकाययोग] | अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुवेद] 5.देशविस्त | 15 [गुणस्थानक्त] [गुणस्थानवत्37-2 (स्त्रीवेद, 20[5 मिथ्यात्व, नपुंसक्वेद)]
अनंतानुबंधी आदि कषाय, सअविरति,आहारकद्विक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकद्विक, और कार्मणकाययोग
[49]
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आस्रव अभाव
गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति आस्रव 6.प्रत्तक्रित | 2 [गुणस्थानवत् | 22 [गुणस्थानवत्24-2 (स्त्रीवेद,
नपुंसकवेद)]
33 [5 मिथ्यात्व, अविरति 12, अनंतानुबंधी आदि 12 कषाय, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकद्विक,
और कार्मण काययोग] | 35 [उपयुत 33+2 (आहारकद्विक)]
7.अप्रमत्त
20 [गुणस्थानवत्22-2 (स्त्रीवेद, नपुंसकवेद)]
8.अपूर्वकरण 6 [गुणस्थानव]
| 35 [उपयुत्त
9.अनिवृत्तिकरणभागत 9.अनिवृत्तिकरणभाग2 ७.अनिवृत्ति- | 1 [वेद] करण भाग
/20 [गुणस्थानवत्22-2 (स्त्रीवेद, नपुंसकवेद)] 14 [गुणस्थानक्त् 16-2 (स्त्रीवेद, नपुंसकवेद)] | 14[गुणस्थानक्त् 15-1 (स्त्रीवेद)]
| 41[उपर्युक्त 35+हास्य | आदि6 नोक्षाय 41[उपर्युक्त
14 [गुणस्थानव
41 [उपयुक्त
मिस्सदुकम्मइयच्छिदी साणे संढ़े ण होइ पुरसिच्छी। हारदुर्ग विदियगुण ओरालियमिस्स वोच्छेदो।।44|| मिश्रद्धिककार्मणच्छित्ति: सासादने, षंढ़े न भवतः पुरुषस्त्रियौ। आहारदिकं दितीयगुणे औदारिकमिश्रस्य व्युच्छेदः ॥
अर्थ - स्त्रीवेद में सासादन गुणस्थान में औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण काययोग की व्युच्छित्ति हो जाती है। नपुंसकवेद में पुंवेद, स्त्रीवेद एवं आहारकद्विक नहीं पाये जाते हैं तथा नपुंसकवेद में सासादन गुणस्थान में औदारिक मिश्र काययोग की व्युच्छित्ति हो जाती है एवं सासादन गुणस्थान में वैक्रियिक मिश्र को कम कर चतुर्थ गुणस्थान में जोड़ देना चाहिए। क्योंकि नपुंसक वेद में सासादन गुणस्थान में वैक्रियिकमिश्र काययोग नहीं पाया जाता है। (उपर्युक्त अर्थ गाथा 44 एवं गाथा 45 के दो चरणों से ग्रहण किया गया है)
-
1. स्त्रीवेदस्य सासादन गुणस्थाने।
[50]
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संदृष्टि नं. 29 स्त्रीवेद आस्रव 53
-
स्त्रीवेद में 53 आम्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - 5 मिथ्यात्व, 12 अविरति, 13 योग ( मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 5 औदारिक, औदारिक मिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण), कषाय 23 ( कषाय 16, हास्य आदि 6 नोकषाय एवं स्त्रीवेद) । गुणस्थान मिथ्यात्व आदि 9 होते हैं ।
गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति
1. मिथ्यात्व 5 [5 मिथ्यात्व ]
12. सासादन
3. मिश्र
4. अविस्त
5. देशविस्त
6. प्रमत्त विरत
7 [ अनंतानुबंधी 4 कषाय, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और
कार्मणकाययोग]
0
6 [अप्रत्याख्यान क्रोध आदि 4, त्रस
| अविरति, वैक्रियिक काययोग]
15 [गुणस्थानवत्]
0
आस्रव
53 [5 मिथ्यात्व, 12 अविरति, योग 13 (मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 5औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण) कषाय 23 (कषाय 16, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद ) ]
| 48 [ उपर्युक्त 53 - 5 मिथ्यात्व]
| 41 [ उपर्युक्त 48-7
(4 अनंतानुबंधी, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण काययोग)]
35 [गुणस्थानवत् 37-2 (पुंवेद, नपुंसकवेद)]
20 [गुणस्थानक्त् 24-4 (पुंवेद, नपुंसकवेद, आहारकद्विक)]
आस्रव अभाव
41 [12 अविरति, योग 10 (मनोयोग 4, 12 [ उपर्युक्त ] क्चनयोग 4, काययोग 2 - औदारिक,
वैक्रियिक), अप्रत्याख्यानादि 12 कषाय, हारयादि 6 नोकषाय, स्त्रीवेद ]
5 [5 मिथ्यात्व]
0
12 [5 मिथ्यात्व, 4 अनंतानुबंधी,
| औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोग]
18 [ उपर्युक्त 12 + 6 (अप्रत्याख्यान
क्रोध आदि 4,
स अविरति, वैक्रियिक
काययोग)]
33 [5 मिथ्यात्व, अविरति 12, अनंतानुबंधी आदि 12 कषाय, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकद्विक और कार्मण काययोग ]
[51]
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गुणस्थान | आस्रव व्युच्छित्ति
आस्रव
आस्रव अभाव
7.अप्रमत्त विस्त
20 [उपयुक्त
33 [उपर्युत
8. अपूर्वकरण |6 [गुणस्थानक्त]
20 [उपर्युक्त]
| 33 [उपर्युक्त
9.अनिकृतिकरण भाग
14[उपर्युक्त 20-हास्य आदि 6नोकषाय
39 [उपर्युत्त 33+ हारय आदि6,नोकषाय
9.अनिवृत्त- 1 [स्त्रीवेद]
14 [उपयुक्त
39 [उपर्युक्त
करणभाग2
संदृष्टि नं. 30
नपुंसकवेद आस्रव 53 नपुंसकवेद के 53 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - 5 मिथ्यात्व, 12 अविरति, 13 योग (मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 5 - औदारिक, औदारिक मिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोग), कषाय 23 (कषाय 16, हास्य आदि 6 नोकषाय एवं नपुंसकवेद)। गुणस्थान मिथ्यात्व आदि 9 होते हैं।
-
-
गुणस्थान | आस्रव व्युच्छित्ति आस्रव
आस्रव अभाव 1. मिथ्यात्व |5[5 मिथ्यात्व | 53 [5 मिथ्यात्व, 12 अविरति, योग 13
(मनोयोग, वचनयोग 4, काययोग 5औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्रऔर कार्मण) कषाय 23 (कषाय 16, हास्य, रति, अरति, शोक,
भय,जुगुप्सा, नपुंसकवेद] 2. सासादन |5[अनंतानुबंधी | 47 [उपर्युक्त53-6
6 [5 मिथ्यात्व, वैक्रियिक 4 कषाय, औदारिक (5 मिथ्यात्व, वैक्रियिकमिश्रकाययोग] मिश्रकाययोग]
मिश्रकाययोग 3.मिश्र 141 [उपयुत47-6
| 12 [5 मिथ्यात्व, (4अनंतानुबंधी, वैत्रियिकमिश्र, 4अनंतानुबंधी, औदास्किमिश्र, कार्मणकाययोग)]
वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोग]
[52]
-
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गुणस्थान आसव व्युच्छित्ति
4. अविस्त
5. देशविस्त
6. प्रमत्तविरत
8 [ अप्रत्याख्यान
क्रोध आदि 4, त्रस अविरति, वैक्रियिक,
वैक्रियिक मिश्र, कार्मण
काययोग]
15 [ गुणस्थानवत्]
0
7. अप्रमत्त विस्त
8. अपूर्वकरण 6 [गुणस्थानवत् ]
0
9. अनिवृत्ति- 1 [नपुंसकवेद ]
करण भाग 1
आस्रव
| 43 [उपर्युक्त 41+2 (वैक्रियिकमिश्र, कार्मणकाययोग)]
35 [गुणस्थानवत् 37-2 (पुंवेद, [स्त्रीवेद )]
20 [संज्वलन 4, हास्य, रति, अरति,
शोक, भय, जुगुप्सा, नपुंसकवेद, मनोयोग 4, वचनयोग 4, औदारिक काययोग ]
20 [उपर्युक्त ]
20 [उपर्युक्त ]
14 [उपर्युक्त 20- हास्य आदि 6 नोकषाय ]
आस्रव अभाव
10 [5 मिथ्यात्व
4 अनंतानुबंधी, औदारिकमिश्र काययोग]
18 [ उपर्युक्त 10+8
( अप्रत्याख्यान क्रोध आदि 4, त्रस अविरति, वैक्रियिकद्विक, कार्मणकाययोग)]
33 [5] मिथ्यात्व अविरति 12, अनंतानुबंधी आदि 12 कषाय, औदारिकमिश्र, वैकिकिद्विक और कार्मणकाययोग]
33 [उपर्युक्त ]
33 [उपर्युक्त ]
तेसिं अवणिय वेगुव्वियमिस्स अविरदे हु णिक्खेवे । माणादिबारसहीण पणदाला ||45||
कोहचउक्के
39 [ उपर्युक्त 33 + 6,
काय ]
तेषां अपनीय वैक्रियिकमिश्रं अविरते हि निक्षिपेत् । मानादिव्दादशहीनाः
क्रोधचतुष्के
पंचचत्वारिंशत् ॥
[53]
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________________
माणादितिये एवं इदरकसाणहिं विरहिदा जाणे। कुमदिकुसुदे ण विज्जदि हारदुगं होति पणवण्णा ||46||
मानादित्रिके एवं इतरकषायैः विरहितान् जानीहि । कुमतिकुश्रुतयोः न विद्यते आहारद्धिकं भवन्ति पंचपंचाशत् ॥
अर्थ - अनन्तानुबंधी - अप्रत्याख्यानादि चारों प्रकार के क्रोध में अपनी चार कषाय के अतिरिक्त अन्य बारह कषायों को कम करने पर शेष (57-12) = 45 आस्रव होते हैं। इसी प्रकार मानादि त्रय चतुष्क में अपनी चार कषायों के अतिरिक्त अन्य बारह कषायों को कम करने पर शेष पैंतालीस आम्रव जानना चाहिए। कुमति और कुश्रुतज्ञान में आहारकद्विक को छोड़कर शेष पचपन आम्रव होते हैं।
वेभंगे बावण्णा कमणमिस्सदुगहारदुगहीणा। णाणतिये अडदालं पणमिच्छाचारिअणरहिदा ।।47।।
विभंगे दिपंचाशत् कार्मणमिश्रद्धिकाहारद्धिकहीनाः। ज्ञानत्रिके अष्टचत्वारिंशत् पंचमिथ्यात्वचतुरनरहिताः॥
अर्थ - विभंगावधि ज्ञान में कार्मण काययोग, औदारिकमिश्र काययोग, वैक्रियिकमिश्र काययोग, आहारकद्विक बिना शेष बावन आस्रव होते हैं। मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी व अवधिज्ञानी जीवों के अनन्तानुबंधी चतुष्क और पाँच मिथ्यात्व को छोड़कर अड़तालीस आस्रव होते हैं।
[54]
Page #64
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________________
संदृष्टि नं. 31
क्रोध चतुष्क आस्रव 45 अनन्तानुबंधी आदि चारों प्रकार के क्रोधों में 45 आस्रव होते हैं - आस्रव के 57 भेदों में से 4 कषायों की शेष मान आदि 12 कषायें कम करने पर 45 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - 5 मिथ्यात्व, 12 अविरति, 15 योग, 4 प्रकार का क्रोध, नोकषाय 9। गुणस्थान मिथ्यात्व आदि 9 होते हैं। गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति आसव
आस्रव अभाव 1.मिथ्यात्व 5[5 मिथ्यात्व 43[5मिथ्यात्व, 12अविरति, योग 132[आहारकऔर आहारकमिश्र
(मनोयोग4,वचनयोग4,काययोग 5- काययोग औदारिक, औदारिकमिश्र,वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्रऔर कार्मण काययोग),
4प्रकार का क्रोध, नोकषाय] 2. सासादन |1[अनंतानुबंधी क्रोध] 38[उपर्युत43-5मिथ्यात्व 17[5 मिथ्यात्व, आहारकद्विक 3.मिश्र
134 उपर्युक्त 38-4 (अनंतानुबंधीक्रोध, | 1115 मिथ्यात्व, अनंतानुबंधी औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्रऔर
क्रोध, औदारिकमिश्र, कार्मण काययोग)]
वैक्रियिकमिश्र, आहारकद्विक
और कार्मण काययोग] 4.अविस्त [अप्रत्याख्यान 7 [उपयुक्त 34+3 (औदारिकमिश्र, [5 मिथ्यात्व, अनंतानुबंधी
क्रोध, जसअविरति, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण काययोग)] क्रोध, आहारकद्रिक औदास्किमिश्र, वैक्रियिकद्विक,
कार्मणकाययोग 5.देशविस्त | 12[पृथ्वीकाय आदि 31 [उपर्युत 37-6(अप्रत्याख्यान क्रोध, 14[उपयुत्त8+6
11 अविरति, स अविरति, औदारिकमिश्र, (अप्रत्याख्यान क्रोध, त्रस प्रत्याख्यान क्रोध] वैक्रियिकद्रिक, कार्मण काययोग)] अविरति, औदास्किमिश्र,
वैक्रियिकद्विक, कार्मण
काययोग)] 6.प्रात्त विस्त | 2[आहारकद्रिका 21 [संज्वलनक्रोध, नोकषाय 9, 24 [5 मिथ्यात्व, अविरति 12,
मनोयोग 4, क्चनयोग 4, औदारिक अनंतानुबंधी आदि 3 प्रकार का काययोग, आहारकद्विक] क्रोध, औदारिकमिश्र,
वैक्रियिकद्विक और
कार्मणकाययोग] 7.अप्रमत्त
| 19 [उपर्युक्त 21-आहारकद्विक] 26 [उपर्युक्त 24+ विस्त
आहारकद्विको
[55]
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गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति आस्रव । आस्रव अभाव . 8. अपूकरण | 6 [हास्य आदि6 19 [उपर्युक्त]
26 [उपर्युक्त नोक्षाय 9.अनिवृत्ति- 1 [नपुंसकवेद] . | 13 [उपर्युक्त 19 - हास्य आदि 32 [उपर्युत 26 + हारय करणभाग1 नोकषाय]
आदि6 नोकषाय] 9.अनिवृत्ति- 1 स्त्रिीवेद 12 [उपर्युक्त 13 - नपुंसकन्द 33 [उपर्युत 32+ करणभाग2
नपुंसकवेद] 9.अनिवृत्त- 1 [वेद | 11 [उपर्युक्त 12-स्त्रीवेद |34 [उपर्युक्त 33+स्त्रीवेद] करणभाग ७.अनिवृत्ति- 1 [संज्वलन क्रोध] 10 [उपयुत 11-फुद] | 35 [उपर्युक्त 34+ पुद] करणभाग नोट - इसी प्रकार चारों प्रकार के मान, माया, लोभ कषाय में संदृष्टि लगाना चाहिए। मात्र विशेषता यह है कि लोभ कषाय में मिथ्यात्व आदि 10 गुणस्थान होते हैं।
संदृष्टि नं. 32
कुमति कुश्रुतज्ञान आम्रव 55 कुमति कुश्रुतज्ञान में 55 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - 5 मिथ्यात्व, 12 अविरति, 13 योग (मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 5 - औदारिक, औदारिक मिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण काययोग), कषाय 16, नोकषाय 9। गुणस्थान मिथ्यात्व आदि 2 होते हैं। गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति
आम्रव अभाव
आसव
1. मिथ्यात्व |5[5 मिथ्यात्व] .
55 [5 मिथ्यात्व, 12 अविरति, 13 योग (मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 5औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण काययोग), कषाय 16, नोक्षाय 9]
2.सासादन
50 [उपर्युक्त 55-5 मिथ्यात्व]
|5[5 मिथ्यात्व
4[अनंतानुबंधी 14कषाय]
[56]
Page #66
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संदृष्टि नं. 33
कुअवधिज्ञान आसव 52
कुअवधिज्ञान में 52 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं 5 मिथ्यात्व, 12 अविरति, 10 योग ( मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 2 - औदारिक और वैक्रियिक), कषाय 16, नोकषाय 9 । गुणस्थान मिथ्यात्व आदि 2 होते हैं ।
गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति
1. मिथ्यात्व
[5] [5] मिथ्यात्व ]
2. सासादन
4 [ अनंतानुबंधी [4] कषाय ]
5. देशविस्त
9 [अप्रत्याख्यान क्रोध आदि 4, त्रस
अविरति, औदारिक
मिश्र, वैक्रियिकद्विक
और कार्मणकाययोग]
15 [गुणस्थानवत्]
आस्रव
| 52 [5 मिथ्यात्व, 12 अविरति, 10 योग (मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 2 - ( औदारिक और वैक्रियिक), कषाय 16, नोकषाय 9]
| 47 [ उपर्युक्त 52 - 5 मिथ्यात्व ]
संदृष्टि नं. 34
सज्ज्ञानत्रय आस्रव 48
सज्ज्ञानत्रय में 48 आम्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं- अविरति 12, योग 15, अप्रत्याख्यान आदि 12 कषाय, नोकषाय 9 । गुणस्थान अविरत आदि 9 होते हैं ।
गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति
आस्रव अभाव
4. अविस्त
आसव
आस्रव अभाव
0
5 [5] मिथ्यात्व]
46 [ अविरति 12, योग 13, (मनोयोग 4, 2 [ आहारक, आहारकमिश्र क्वनयोग 4, काययोग 5 -
काययोग ]
औदारिकद्विक, वैक्रियिकद्विक और कार्मण), अप्रत्याख्यान आदि 12 कषाय,
नोकषाय 9]
37 [गुणस्थानवत्]
11 [ अप्रत्याख्यान क्रोध आदि 4, त्रस अविरति, | औदारिकमिश्र, वैक्रियिकद्विक,
[57]
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गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति
6. प्रमत्त विस्त 2 [गुणस्थानक्त्]
7. अप्रमत्त विस्त
8. अपूर्वकरण 6 [गुणस्थानवत्
9. अनिवृत्ति
1 [नपुंसकवेद ]
करण भाग 1
19. अनिवृत्ति
करण भाग2
9. अनिवृत्ति
करण भाग3
9. अनिर्वृत्तिकरण भाग4
19. अनिवृत्तिकरण भाग
9. अनिवृत्तिकरण भाग6
10. सूक्ष्य
सम्पराय
संपत
1 [स्त्रीवेद]
1 [पुंवेद]
0
1 [संज्वलन क्रोध ]
1] [संज्वलनमान]
1 [संज्वलन माया]
1] [संज्वलन लोभ ]
11. उपशांत
मोह
12. क्षीण मोह 4 [गुणस्थानक्त्]
0
आस्रव
[24] [गुणस्थानवत्]
22 [गुणस्थानवत्]
22 [ गुणस्थानवत्]
16 [गुणस्थानवत्]
15 [ गुणस्थानवत्
14 [गुणस्थानवत्
13 [गुणस्थानवत्]
12 [गुणस्थानवत्]
11 [गुणस्थानवत्
10 [गुणस्थानवत्
19 [गुणस्थानवत्]
9 [गुणस्थानवत्]
आस्रव अभाव
आहारकद्विक और कार्मणकाययोग]
24 [अविरति 12, अप्रत्याख्यान आदि 8 कषाय, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकद्विक [ और कार्मणकाययोग]
26 [उपर्युक्त 24 + 2 (आहारकद्विक)]
26 [उपर्युक्त ]
32 [उपर्युक्त 26 + हास्य
आदि 6 नोकषाय ]
| 33 [ उपर्युक्त 32 + नपुंसकवेद]
34 [ उपर्युक्त 33 + स्त्रीवेद]
35 [ उपर्युक्त 34 +
+ पुंवेद]
36 [ उपर्युक्त 35 + संज्वलन
क्रोध ]
37 [ उपर्युक्त 36 + संज्वलन
मान]
38 [उपर्युक्त 37 + संज्वलन
माया]
39 [उपर्युक्त 38 + संज्वलन
लोभ]
39 [उपर्युक्त 38 + संज्वलन | लोभ]
[58]
Page #68
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________________
मणपज्जे संढित्थीवज्जिदसगणोकसाय संजलणं। आदिमणवजोगजुदा पच्चयवीसं मुणेयव्वा ।।48|| मनःपर्यये षंढ़स्त्रीवर्जितसप्तनोकषायाः संज्वलनाः ।
आदिमनवयोगयुक्ताः प्रत्ययविंशतिः ज्ञातव्या ॥ अर्थ - मन:पर्यय ज्ञान में स्त्रीवेद, नपुंसकवेद को छोड़कर शेष सात नोकषाय, संज्वलन चतुष्क, औदारिक काययोग, मनोयोग चार और वचनयोग चार ये बीस आस्रव होते हैं।
ओरालं तंमिस्सं कम्मइयं सच्चअणुभयाणं च। मणवयणाण चउक्के केवलणाणे सगं जाणे ॥49।।
औदारिकं तन्मिनं कार्मणं सत्यानुभयानां च । मनोवचनानां चतुष्कं केवलज्ञाने सप्त जानीहि ॥ अर्थ - केवलीज्ञान में सत्य, अनुभय मनोयोग तथा वचनयोग औदारिक, औदारिकमिश्र काययोग व कार्मण काययोग ये सात आम्रव होते हैं।
संदृष्टि नं. 35
मन:पर्ययज्ञान आस्रव 20 मन:पर्ययज्ञान में 20 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - मनोयोग 4, वचनयोग4, औदारिक काययोग, संज्वलन क्रोध आदि 4 कषाय, हास्य आदि 6, नोकषाय और पुवेद । गुणस्थान प्रमत्तसंयत आदि 7 होते हैं। गुणस्थान | आस्रव व्युच्छित्ति
आस्रव । आस्रव अभाव
6.प्रात्तविस्त
20[उपर्युक्त
17.अप्रमत्त विस्त
20 [उपर्युत
[59]
Page #69
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________________
आस्रव अभाव
गुणस्थान | आस्रव व्युच्छित्ति आस्रव 8.अपूर्वकरण | 6 [गुणस्थानक्त्] 20 उपर्युक्त]
9.अनिवृत्तिकरणभागी
6 [हास्य आदि नोकषाय
| 14 उपयुत्त 20- हास्य आदि6 नोकषाय]
9.अनिवृत्तिकरणभाग2
| 14[उपर्युत
6 [उपर्युक्त
|14[उपर्युक्त
6 [उपयुक्त
9.अनिवृत्ति- 11वेद करणभाग3
9.अनिवृत्ति- | 1 [संज्वलन क्रोध] |13 [गुणस्थानक्त] करणभाग
7 [उपर्युक्त 6+ पुवेद
9.अनिवृत्त- | 1[संज्वलनमान करणभF5
|12[गुणस्थानवत]
8 [उपर्युक्त 7 + संज्वलन क्रोध]
9.अनिवृत्ति- | 1[संज्वलन माया] |11 गुणस्थानक्त] करणभाग
9[उपर्युक्त 8 + संज्वलन
मान)
| सिंज्वलनलोभ] |10[गुणस्थानक्]
| 10.सूक्ष्य साम्पत्य संयंत
10[उपयुक्त + संज्वलन माया
11.उपशंत
19[गुणस्थानक्त
11[उपर्युत 10+संज्वलन लोभ
मह
12. क्षीणमोह | 4 गुणस्थानवत]
[गुणस्थानक्त]
11 [उपयुक्त
[60]
Page #70
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________________
संदृष्टि नं: 36
केवलज्ञान आस्रव 7 केवलज्ञान में 7 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - सत्य, अनुभय मनोयोग, सत्य, अनुभय वचनयोग, औदारिक, औदारिकमिश्र और कार्मण काययोग गुणस्थान । सयोग केवली और अयोग केवली ये दो होते हैं।
आम्रव
आसव अभाव
गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति 13. स्योग 7 [सत्य, अनुभय 7 [सत्य, अनुभयमनोयोग, केवली मनोयोग, सत्य, सत्य, अनुभयवचनयोग,
अनुभयवचनयोग, औदारिकद्विक और औदास्किद्विक और कर्मणकाययोग] कार्मणकाययोग]
| 14.अयोग
केवली
7[उपर्युक्त
अडमणवयणोरालं हारदुगं णोकसाय संजलणं। सामाइयछेदेसु य चउवीसा पचया होति ।।50॥
अष्टमनोवचनौदारिका आहारदिकं नोकषायाः संज्लनाः। सामायिकच्छेदयोश्च चतुर्विशतिः प्रत्यया भवन्ति ।
अर्थ - सामायिक, छेदोपस्थापना संयम में चार संज्वलन कषाय, नौ नोकषाय, चार मनोयोग, चार वचनयोग, आहारक काययोग, आहारकमिश्र काययोग इस प्रकार चौबीस आस्रव होते हैं।
विंसदि सुहमे
परिहारे संढित्थीहारदुगवज्जिया एदे। णवआदिमजोगा संजलणलोहजुदा ।।51।।
[61]
Page #71
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________________
विंशतिः परिहारे षंढस्त्री आहारदिकवर्जिता एते । नवादिमयोगा
सूक्ष्मे
संज्वलनलोभयुताः ॥
अर्थ परिहारविशुद्धि संयम में उपर कथित चौबीस प्रत्ययों में से स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, आहारकद्विक को छोड़कर बीस आस्रव होते हैं। सूक्ष्मसांपराय संयम में आदि के नौ योग अर्थात् चार मनोयोग, चार वचनयोग, औदारिक काययोग एवं संज्वलन लोभ इस प्रकार ये दस आस्रव होते हैं ।
-
एदे
पुण जहखादे संजलणलोहहीणा
कम्मण ओरालमिस्ससुजुत्ता । DRIT ||52||
एते पुनः यथाख्याते कार्मणौदारिकमिश्रसंयुक्ताः । संज्वलनलोभहीना
ज्ञेयाः ॥
-
एगादसपच्चया
एकादशप्रत्यया
अर्थ यथाख्यात संयम में ऊपर कथित सूक्ष्मसांपरायसंयम के दस आस्रवों में कार्मणकाययोग, औदारिकमिश्र काययोग जोड़ने पर एवं संज्वलन लोभ कम करने पर ग्यारह आस्रव जानना चाहिए ।
तसऽसंजमवज्जिता सेसऽजमा णोकसाय देसजमे । अट्टंतिल्लकसाया आदिमणवजोग सगतीसा ||53||
देशयमे ।
त्रसासंयमवर्जिताः शेषायमा नोकषाया अष्टौ अन्तिमकषाया आदिमनवयोगाः सप्तत्रिंशत् ॥
अर्थ - देशसंयम में त्रस अविरति को छोड़कर शेष ग्यारह अविरति, नौ नोकषाय, प्रत्याख्यान चतुष्क, संज्वलन चतुष्क, चार मनोयोग, चार वचनयोग इस प्रकार समस्त सेंतीस आस्रव होते हैं ।
[62]
Page #72
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________________
आहारयदुगरहिया पणवण्ण असंजमे दु चक्खुदुगे। सव्वे णाणतिकहिदा अडदाला ओहिदंसणे णेया ।।54||
आहारकद्धिकरहिताः पंचपंचाशदसंयमे तु, चक्षुर्दि के। सर्वे, ज्ञानत्रिककथिता अष्टचत्वारिंशत् अवधिदर्शने ज्ञेया:।।
अर्थ - असंयम आहारद्विक से रहित पचपन आस्रव होते हैं। अचक्षु, चक्षुदर्शन में सभी 57 आस्रव होते है। अवधिदर्शन में मति, श्रुत, अवधि ज्ञान में कथित अड़तालीस आम्रव जानना चाहिये।
संदृष्टि नं. 37 सामायिक-छेदोपस्थापनासंयम आस्रव 24 सामायिक-छेदोपस्थापनासंयम में 24 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - योग 11 (मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 3 - औदारिक, आहारक, आहारकमिश्र काययोग), संज्वलन क्रोध आदि 4 कषाय, हास्य आदि 6 नोकषाय, स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसकवेद । गुणस्थान प्रमत्तसंयत आदि 3 होते हैं।
गुणस्थान
आसव
आस्रव अभाव
| आस्रव व्युच्छित्ति | 2[गुणस्थानक्]
6 प्रात्त
24 [गुणस्थानक्त
7. अगत्त विस्त
22 [उपर्युक्त 24आहारकद्धिक
2[आहारकद्धिको
& अपूकरण
6[गुणस्थानक्]
22[उपयुक्त
2[आहारकद्रिक
9.अनिवृत्त-
करणभाग।
1[गुणस्थानवत]
16[गुणस्थानव
8[हास्य आदि 6नोक्षाय, आहारकद्रिका
[63]
Page #73
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________________
आम्रव
आम्रव अभाव
गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति 9.अनिवृत्ति 1 [गुणस्थानवत् -करण
15 [गुणस्थानवत्
9[उपयुक्त8+ नपुंसकवेद]
भार
9.अनिवृत्ति
करणभाग3
| 1 [गुणस्थानक्त्]
14[गुणस्थानवत्]
10[उपर्युत + स्त्रीवेद
9.अनिवृत्ति
करणभाग
| 1 गुणस्थानक्त
13 [गुणस्थानवत]
11[उपर्युत 10+
-
9.अनिवृत्ति-
करण भाग
| 1 गुणस्थानक्त्] ।
12 [गुणस्थानवत]
12[उपर्युत्त 11+ संज्वलनक्रोध]
9.अनिवृत्ति
करणभाग:
1 गुणस्थान
11 गुणस्थान
13[उपर्युक्त 12+ संज्वलनमान]
संदृष्टि नं. 38
परिहारविशुद्धि संयम आस्रव 20 परिहारविशुद्धि संयम में 20 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं -योग 9 (मनोयोग 4, वचनयोग 4, औदारिककाययोग), संज्वलन क्रोध आदि 4 कषाय, हास्य आदि 6 नोकषाय, पुंवेद। गुणस्थान प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत ये दो होते हैं।
गुणस्थान | आम्रव व्युच्छित्ति
आस्रव
आस्रव अभाव
6.प्रमत्त विस्त
20 [मनोयोग4,क्कनयोग4, औदारिककाययोग, संज्वलनक्रोध आदि4 कषाय, हास्य आदि 6 नोकषाय, पुंवेद]
-
-
7. अपात्त विस्त
20[उपयुक्त
[64]
Page #74
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________________
संदृष्टि नं. 39
सूक्ष्यसांपराय संयम आस्रव 10 सूक्ष्यसांपराय संयम में 10 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - योग 9 (मनोयोग 4, वचनयोग 4, औदारिककाययोग), संज्वलन लोभ । गुणस्थान एक मात्र सूक्ष्मसांपराय संयम होता है।
आस्रव अभाव
गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति आस्रव 10.सूक्ष्य
| 10[मनोयोग 4,चनयोग4, साम्पराय
औदारिककाययोग, संज्वलन लोभ]
संगत
संदृष्टि नं. 40
यथाख्यात संयम आस्रव 11 यथाख्यात संयम में 11 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - योग 11 - मनोयोग 4, वचनयोग 4, औदारिक, औदारिकमिश्र और कार्मणकाययोग । गुणस्थान उपशांत मोह आदि चार होते हैं।
गुणस्थान |आस्रव व्युच्छित्ति | आस्रव 11.उपांत
9 [मनोयोग 4,क्चनयोग4, औदारिककाययोग
आस्रव अभाव |2 [औदारिक मिश्रऔर कार्मण काययोग
12. क्षीणमोह |4[गुणस्थानक्त]
|2[उपर्युत्त]
[गुणस्थानक्त्] गुणस्थानवत्]
7 [गुणस्थानवत्
13.सयोग केवली
4[असत्य, उभय मनोयोग, असत्य, उभयवचनयोग]
| 14.अयोग केवली
11[उपर्युक्त4+ सत्य, अनुभय मनोयोग, सत्य, अनुभयवचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिक मिश्र और कार्मणकाययोग]
[65]
Page #75
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संदृष्टि नं.41
देशसंयम आस्रव 37 देशसंयम में 37 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - पृथ्विकाय आदि 11 अविरति, प्रत्याख्यानादि 8 कषाय, हास्यादि 9 नोकषाय, योग 9 (मनोयोग 4, वचनयोग 4, औदारिककाययोग)। गुणस्थान एक मात्र देशसंयम होता है।
आस्रव अभाव
गुणस्थान आम्रव व्युच्छित्ति आस्रव 5.देशविस्त
|37 [पृथ्विकाय आदि 11 अविरति, प्रत्याख्यानादि 8 कषाय, हास्यादि 9 नोकषाय, मनोयोग 4, वचनयोग 4, औदारिककाययोग]
संदृष्टि नं. 42
असंयम आस्रव 55
आस्रव
असंयम में 55 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - 5 मिथ्यात्व, 12 अविरति, 13 योग (मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 5 - औदारिक, औदारिक मिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिक मिश्र और कार्मण), कषाय 16, नोकषाय 9 । गुणस्थान मिथ्यात्व आदि 4 होते हैं। गुणस्थान आम्रव व्युच्छित्ति|
आस्रव अभाव 1.मिथ्यात्व |5[5 मिथ्यात्व 55 [5 मिथ्यात्व, 12अविरति, 13 योग
(मनोयोग 4, वचनयोग 4,काययोग 5औदारिकद्विक, वैक्रियिकद्विक और
कार्मण काययोग), कषाय 16, नोकषाय]] 2. सासादन 4[अनंतानुबंधी |50[उपर्युक्त 55-5मिथ्यात्व] 5[5 मिथ्यात्व
|4कषाय]
3.मिश्र
43[उपर्युक्त 50-7(4अनंतानुबंधी, 12 [5 मिथ्यात्व,4 औदारिकमिश्र,वैक्रियिकमिश्र और कार्मण अनंतानुबंधी, औदारिकमिश्र, काययोग)]
वैक्रियिकमिश्र और कार्मण काययोग]
[66]
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गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति
4. अविस्त
गुणस्थान
1. मिथ्यात्व
9 [अप्रत्याख्यान क्रोध
आदि 4, त्रस अविरति | औदारिकमिश्र, | वैक्रियिकद्विक और कार्मण काययोग ]
12. सासादन 3. मिश्र
4. अविरत
चक्षु अचक्षु दर्शन में 57 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं 5 मिथ्यात्व, 12 अविरति, 15 योग, कषाय 25 ( कषाय 16, नोकषाय 9 ) । गुणस्थान मिथ्यात्व आदि बारह होते हैं । इसकी संदृष्टि गुणस्थान के समान जानना चाहिये । (देखें संदृष्टि नं. 1 )
5. देशविस्त
6. प्रमत्तविस्त
7. अप्रमत्तविरत
8. अपूर्वकरण
| 9. अनिवृत्तिकरण भाग 1
भाग 2
भाग 3
भाग 4
भाग 5
भाग 6
| 10. सूक्ष्यसाम्परायसंयत 11. उपशांतमोह
12. क्षीणमोह
आस्रव
आस्रव अभाव
46 [ उपर्युक्त 43 + 3 (औदारिकमिश्र, 9 [5 मिथ्यात्व, 4 अनंतानुबंधी ] वैक्रियिकमिश्र और कार्मण काययोग)]
संदृष्टि नं. 43
चक्षु-अचक्षु दर्शन आस्रव 57
| आस्रव व्युच्छित्ति
5
4
0
9 [असंयम के अविरत
गुणस्थानवत्]
15
2
0
6
1
1
1
1
1
1
1
०
4
आस्रव
55
50
43
46
37
24
22
22
16
15
14
13
12
11
10
9
9
-
आस्रव अभाव
2
7
14
11
20
33
35
35
41
42
43
44
45
46
47
48
48
[67]
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•संदृष्टि नं. 44
अवधि दर्शन आस्रव 48 अवधि दर्शन में 48 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - अविरति 12, योग 15, अप्रत्याख्यान आदि 12 कषाय, नोकषाय 9 । गुणस्थान अविरत आदि 9 होते हैं।
गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति
आम्रव
आस्रव अभाव 4.अविस्त 9[अप्रत्याख्यान 146 [अविरति 12, योग 13 (मनोयोग4, 2[आहारक, आहारकमिश्र क्रोधआदि4,स क्चनयोग4, काययोग5
काययोग] अविरति, औदारिक औदारिकद्विक, वैक्रियिकद्विक और मिश्र, वैक्रियिकद्विक कार्मण), अप्रत्याख्यान आदि 12 कषाय,
और कार्मणकाययोग] नोकषाय] |5.देशविरत | 15 [गुणस्थानवत] 37 [गुणस्थानव
11[अप्रत्याख्यान क्रोध आदि 4, सअविरति, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकद्विक, आहारकद्रिक और
कार्मणकाययोग] 6.प्रात्तविरत | 2 [गुणस्थानक्त 24 [गुणस्थानक्त
24 अविरति 12, अप्रत्याख्यान आदि कषाय, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकद्रिक और कार्मणकाययोग]
7. अप्रमत्त
0
22 [गुणस्थानवत
22 [गुणस्थानवत्] 16 [गुणस्थानवत]
8. अपूकरण | 6 [गुणस्थानक्त] ७.अनिवृत्ति- 1निपुंसकवेद] करणभाग। 9.अनिवृत्ति- | 1 [स्त्रीवेद करणभाग2
| 26[उपर्युत24+2 (आहारकद्धिक)] 26 [उपर्युक्त 32[उपर्युत 26 + हास्य आदि नोक्षाय 33 [उपयुक्त 32+ नपुंसक्वेद 34 [उपयुक्त 33+ स्त्रीवेद]
15 [गुणस्थानव
9.अनिवृत्ति- 1 [पंवेद] करणभाग
14 [गुणस्थानव
[68]
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
आस्रव अभाव
गुणस्थान | आस्रव व्युच्छित्ति आस्रव 9.अनिवृत्ति- 1[संज्वलन क्रोध] | 13 [गुणस्थानव
35 [उपर्युक्त 34+ पुद]
करणभाग4
9.अनिवृत्ति- | 1 सिंज्वलनमान] करणभाग
| 12 [गुणस्थानवत्]
36 [उपर्युक्त 35+ संज्वलन क्रोध
9.अनिवृत्ति- 1 [संज्वलनमाया करणभाग
11 [गुणस्थानक्त
37[उपर्युत 36 + संज्वलन मान
-
1[संज्वलनलोभ]
| 10[गुणस्थानक्त
| 10. सूक्ष्य सम्परय संयंत
38 [उपर्युक्त 37 + संज्वलन माया
11.उपशंत
गुणस्थानक्त
39[उपर्युक्त 38 + संज्वलन लोभ
मोह
12. क्षीणमोह | 4 गुणस्थानक्त्]
।
[गुणस्थानवत]
39 [उपर्युक्त
सगजोगपचया खलु केवलणाणव्व केवलालोए। किण्हतिए पणवण्णं हारदुर्ग वज्जिऊण हवे।।55।।
सप्तयोगप्रत्ययाः खलु केवलज्ञानवत् केवलालोके । कृष्णत्रिके पंचपंचाशत् आहारदिकं वर्जयित्वा भवेत् ॥ अर्थ - केवलदर्शन में केवलज्ञान के समान सात आस्रव जानना चाहिये। कृष्ण, नील, कपोत इन तीन लेश्याओं में आहारकद्विक को छोड़कर पचपन आस्रव होते हैं।
किण्हदुसाणे वेगुध्वियमिस्सछिदी हवेइ तेउतिए। मिच्छदुठाणे ओरालियमिस्सो पत्थि अविरदे अस्थि ।।56।।
[6]
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
कृष्णादिकसासादने वैक्रियिकमिश्रच्छित्तिः भवेत् तेजस्त्रिके। मिथ्यात्वदिस्थाने औदारिकमिश्रं नास्ति अविरतेऽस्ति ।
अर्थ - कृष्ण, नील लेश्या के सासादन गुणस्थान में वैक्रियिकमिश्र की व्युच्छित्ति होती है। पीत, पद्म और शुक्ल लेश्या के मिथ्यात्व, सासादन गुणस्थान में औदारिक मिश्र नहीं है, किन्तु चतुर्थ गुणस्थान में है।
•संदृष्टि नं. 45
केवलदर्शन आम्रवन केवल दर्शन में 7 आम्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - सत्य, अनुभय मनोयोग, सत्य, अनुभय वचनयोग, औदारिक, औदारिकमिश्र और कार्मण काययोग। गुणस्थान सयोग केवली और अयोग केवली ये दो होते हैं।
आस्रव अभाव
गुणस्थान | आस्रव व्युच्छित्ति
आस्रव 13.सयोग | 7 [सत्य,अनुभय [सत्य, अनुभय मनोयोग, सत्य, केली | मनोयोग, सत्य, अनुभय अनुभय वचनयोग, औदारिकद्धिक
वचनयोग, औदारिकद्विका और कार्मणकाययोग] और कार्मणकाययोग
14.अयोग
केवली
7 [उपयुक्त
संदृष्टि नं. 46
कृष्ण-नीललेश्या आस्रव 55 कृष्ण-नीललेश्या में 55 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - 5 मिथ्यात्व, 12 अविरति, योग 13 (मनयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 5 - औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण), कषाय 16 , नोकषाय 9। गुणस्थान मिथ्यात्व आदि चार होते हैं।
[70]
Page #80
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________________
आस्रव अभाव
गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति - आस्रव 1.मिथ्यात्व |5[5 मिथ्यात्व 55 [गुणस्थानवत्]
2.सासादन
5 [5 मिथ्यात्व
15 [अनन्तानुबन्धी 4,50[गुणस्थानवत्]
वैक्रियिकमिश्रकाययोग
3.मिश्र
| 43 [गुणस्थानवत]
4,
a. [5 मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी औदारिकमिश्र, वैक्रियिक मिश्र औरफार्मण काययोग 10[5 मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी4, वैक्रियिकमिश्र काययोग
4.अविस्त
| 8[अप्रत्याख्यान 4, स |45[गुणस्थानवत्46अविरति,औदास्किमिश्र, वैक्रियिकमिश्रकाययोग] वैक्रियिकऔर कार्मण काययोग
-
संदृष्टि नं. 47
कापोत-लेश्या आस्रव 55 कापोत-लेश्या में 55 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - 5 मिथ्यात्व, 12 अविरति, योग 13 (मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 5 - औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण), कषाय 16 , नोकषाय 9। गुणस्थान मिथ्यात्व आदि चार होते हैं। गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति
आस्रव अभाव 1.मिथ्यात्व |5[5 मिथ्यात्व 55 [गुणस्थानक्त
आसव
2.सासादन | 4[गुणस्थानवत]
50[गुणस्थानवत]
| 5 [5 मिथ्यात्व 12[कृष्ण-नीललेश्यावत
3.मिश्र
43 [गुणस्थानक्त]
4.अविस्त
46 [गुणस्थानवत
9[5 मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी4]
9[अप्रत्याख्यान4, वसअविरति, औदारिक मिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण काययोग
-
[71]
Page #81
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________________
संदृष्टि नं. 48
पीत-पद्मलेश्या आस्रव 57 पीत-पद्मलेश्या में 57 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - 5 मिथ्यात्व, 12 अविरति, योग 15 (मनोयोग 4 वचनयोग 4, काययोग 7), कषाय 16, नोकषाय 9। गुणस्थान मिथ्यात्व आदि सात होते हैं। गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति आस्रव
आस्रव अभाव
1.मिथ्यात्व |5[5 मिथ्यात्व]
| 54 [गुणस्थानक्त
औदारिकमिश्रकाययोग
3 [गुणस्थानवत् 2 + औदारिकमिश्र काययोग]
2.सासादन
गुणस्थानवत
49 गुणरथानवत्50औदारिकमिश्रकाययोग]
8 [गुणस्थानवत् 7+औदारिकमिश्र काययोग]
3.मिश्र
43 [गुणस्थानव] 46 [गुणस्थानवत] 37 [गुणस्थानक्त
14 [गुणस्थानव 11 [गुणस्थानक्त
4.अक्स्ति कापोतलेश्यावत्] 5.देशविस्त 15 [गुणस्थान 6.प्रात्तसंयम 2[गुणस्थानवत]
20 [गुणस्थानव]
24 गुणस्थान
33 [गुणस्थानवता
7.अप्रमत्त
22[गुणस्थानवता
35 [गुणस्थानव]
सुहलेस्सतिये भव्वे सव्वेऽभव्वे ण होदि हारदुगं। पणवण्णुवसमसम्मे ते मिच्छोरालमिस्सअणरहिदा ।।57||
शुभलेश्यात्रिके भव्ये सर्वे अभव्ये न भवात्याहारदिकं । पंचपंचाशदुपशमसम्यक्त्वे ते मिथ्यात्वौदारिकमिश्रानरहिताः॥
अर्थ - शुभ तीन लेश्याओं अर्थात् पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याओं में तथा भव्यों में सभी सत्तावन आस्रव होते हैं। अभव्य जीवों के आहारकद्विक को छोड़कर पचपन आम्रव होते हैं। औपशमिक सम्यग्दर्शन
[72]
Page #82
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________________
में ऊपर कहे पचपन आस्रवों में से पाँच मिथ्यात्व, औदारिकमिश्र, अनन्तानुबंधी चतुष्क से रहित पैतालीस आस्रव होते हैं।
• संदृष्टि नं. 49 शुक्ललेश्या आस्रव 57
12
शुक्ललेश्या में 57 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं 5 मिथ्यात्व, अविरति, योग 15 ( मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 7 ), कषाय 16, नोकषाय 9 । गुणस्थान मिथ्यात्व आदि तेरह होते हैं ।
गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति
1. मिथ्यात्व 5 [5] मिथ्यात्व ]
2. सासादन 4 [गुणस्थानवत्]
3. मिश्र
4. अकिस्त
[कापोतश्याक्त्]
5. देशविस्त
15 [गुणस्थानवत्
6. प्रमत्त संयम 2 [ गुणस्थानवत्
7. अप्रमत्त
संयम
8. अपूर्व
करण
9. अनिवृत्ति
करण भाग 1
0
0
6] [ गुणस्थानक्त्]
1 [गुणस्थानवत्
9. भाग2
1 [गुणस्थान
9. भाग3 1 [गुणस्थानवत्]
आस्रव
54 [गुणस्थानवत् 55 - औदारिकमिश्रकाययोग]
49 [गुणस्थानवत् 50 - औदारिकमिश्रकाययोग]
43 [गुणस्थानवत्]
46 [गुणस्थानवत्
37 [गुणस्थानवत्]
24 [गुणस्थानवत्]
22 [गुणस्थानवत्]
22 [गुणस्थानवत्]
16 [गुणस्थानवत्]
15 [गुणस्थानवत्]
14 [गुणस्थानवत्
-
आस्रव अभाव
3 [ गुणस्थान
2 + औदारिकमिश्र काययोग ]
8 [ गुणस्थानवत्
7 + औदारिकमिश्र काययोग ]
14 [गुणस्थानवत्]
11 [गुणस्थानवत्]
20 [गुणस्थानवत्]
33 [ गुणस्थानवत्]
35 [गुणस्थानक्त्
35 [गुणस्थानवत्]
41 [गुणस्थानवत्
42 [गुणस्थानवत्]
43 [गुणस्थानवत्
[73]
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
आस्रव अभाव
.
44 [गुणस्थानक्त
गुणस्थान | आस्रव व्युच्छित्ति
आस्रव 9. भाग4 | 1[गुणस्थानक्त] | 13[गुणस्थानवत् 9. भाग
| 1[गुणस्थानवता । 12 [गुणस्थान 9. भाग 1[गुणस्थानक्त 11 [गुणस्थानक्त] | 10.सूक्ष्य | 1[गुणस्थानक्त] 10 [गुणस्थानक्त सम्पराय
45 [गुणस्थानवत
46 [गुणस्थानवत्]
47 [गुणस्थानवत्]
11.उपशंत
[गुणस्थानक्त
48 [गुणस्थानव
12.क्षीणमोह | 4[गुणस्थानवत]
[गुणस्थानक्त
48 [गुणस्थानक्त]
13.सयोग केवली
| 7 [गुणस्थानक्त
7गुणस्थानक्त
50 [गुणस्थानक्त
•संदृष्टि नं. 50
भव्य आस्रव 57 भव्य के 57 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - 5 मिथ्यात्व, 12 अविरति, 15 योग, कषाय 25 (कषाय 16, नोकषाय 9)। गुणस्थान मिथ्यात्व आदि चौदह होते हैं। इसकी संदृष्टि गुणस्थान के समान जानना चाहिये। (देखें संदृष्टि नं. 1) गुणस्थान
आस्रव व्युच्छित्ति | आस्रव 1.मिथ्यात्व
5
55 2 सासादन
4 3.मिश्र 4.अविस्त
7
46 5.देशविस्त
15 6.प्रात्तविस्त
आस्रव अभाव
[74]
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
आस्रव व्युच्छित्ति ।
आस्रव
- आस्रव अभाव
22
35
गुणस्थान 7.अप्रमत्तविरत 8.अपूर्वकरण 9.अनिवृत्तकरण भाग 1
-
22
35
16
41
भाग2
15
42
भाग3
14
43
भाग4
13
44
भाग5
___ 12
45
भाग6
46
1 1
11 10
10. सूक्ष्यसाम्परायसंयत
।
47
11.उपशंतमोह
48
| 12.क्षीणमोह
49
48
13.सयोगकेचली
50
14.अयोगकेचली
57
•संदृष्टि नं. 51
अभव्यत्व आस्रव 55 अभव्य में 55 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - 5 मिथ्यात्व, 12 अविरति, 13 योग (मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 5 - औदारिकद्विक, वैक्रियिकद्विक, कार्मणकाययोग), कषाय 25 1 गुणस्थान एक मात्र ही मिथ्यात्व ही होता है।
गुणस्थान | आस्रव व्युच्छित्ति
आसव
आस्रव अभाव
1.मिथ्यात्व
0
55 [उपयुक्त
[75]
Page #85
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________________
संदृष्टि नं. 52
उपशमसम्यक्त्व आस्रव 45 उपशमसम्यक्त्व में 45 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - 12 अविरति, योग 12 (मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 4-औदारिक, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण काययोग), अप्रत्याख्यानादि कषाय 12, नोकषाय 9। गुणस्थान अविरत आदि आठ होते हैं।
आस्रव अभाव
गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति । आस्रव 4.अविस्त | 8 विसअविरति, 45[12अविरति,योग 12 (मनोयोग
अप्रत्याख्यान 4, वैक्रियिक, |4,क्चनयोग4, काययोग 4वैक्रियिक मिश्रऔर कार्मण | औदारिक, वैक्रियिक, वैक्रियिक काययोग]
मिश्रऔर कार्मण काययोग), अप्रत्याख्यानादिकषाय 12, नोक्षाय]
5.देशविरत | 15 गुणस्थानवत्]
| 37[गुणस्थानक्त
8[सअविरति, अप्रत्याख्यान 4,वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण काययोग]
6.प्रमत्तसंयम
| 22 [गुणस्थानक्त्24-2(आहारक, 23 [12 अक्रिति, आहारकमिश्र काययोग)] अप्रत्याख्यानादिक्षाय,
वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण काययोग]
7.अप्रमत्त संयम
22[गुणस्थानक्त्]
|23 [उपयुक्त
8.अपूर्व
| 6[गुणस्थान
22[गुणस्थानक्]
23 [उपर्युक्त
करण
9.अनिवृत्ति- | 1[गुणस्थानवत करणभाग
16[गुणस्थानव
29 [उपर्युक्त 23+ हास्य आदि 6 नोकषाय
[76]
Page #86
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________________
गुणस्थान | आस्रव व्युच्छित्ति
आस्रव
आस्रव अभाव
9. भाग 2 | 1 गुणस्थानवत]
15 [गुणस्थानवत्
30 [उपर्युक्त 29 + नपुंसकवेद] 31[उपर्युक्त 30+ स्त्रीवेद
9. भाग 3 |
1 गुणस्थानक्त]
14 [गुणस्थानव
9. भाग4 | 1 गुणस्थानव] ।
| 13 [गुणस्थानक्त]
32 [उपर्युक्त 31+ पुवेद
9. भाग 5 | 1गुणस्थानवत]
12[गुणस्थानवत्]
33 [उपर्युक्त 32 + संज्वलनक्रोध]
9. भाग6 | 1 गुणस्थानक्त्]
11 गुणस्थानवत्
34[उपर्युक्त 33 + संज्वलनमान
| 1गुणस्थान
10[गुणस्थानवत्]
10. सूक्ष्य सम्परय संयत
35 [उपर्युक्त 34+ संज्वलनमाया]
11.उपशंत
[गुणस्थानक्त]
मोह
36 [उपर्युक्त 35 + संज्वलनलोभ]
एदे वेदगखइए हारदुओरालमिस्ससंजुत्ता। मिच्छे सासण मिस्से सगगुणठाणव्व णायव्वा ।।58||
एते वेदकक्षायिकयोः आहारद्धिकौदारिकमिश्रसंयुक्ताः । मिथ्यात्वे सासादने मिश्रे स्वकगुणस्थानवज्ज्ञातव्या |
अर्थ - वेदक और क्षायिक सम्यग्दर्शन में ऊपर कहे गये पैंतालीस आस्रवों में आहारकद्विक, औदारिकमिश्र काययोग सहित अड़तालीस आस्रव होते हैं। मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र में अपने गुणस्थान के समान आस्रव जानना चाहिए। अर्थात् मिथ्यात्व में पचपन, सासादन में पचास एवं मिश्र में तेतालीस आस्रव होते हैं।
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________________
संदृष्टि नं. 53
वेदकसम्यक्त्व आस्रव 48
वेदकसम्यक्त्व में 48 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं 12 अविरति, योग 15 ( मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 7 औदारिक, औदारिक मिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र और कार्मण काययोग), अप्रत्याख्यानादि कषाय 12, नोकषाय 9 । गुणस्थान अविरत आदि चार होते हैं ।
गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति
4. अविस्त
5. देशविस्त
9 [ अविरति
अप्रत्याख्यान 4 औदारिकमिश्र, वैकियिक, वैकियिकमिश्र और कार्मण काययोग]
15 [गुणस्थानवत्]
16. प्रमत्तसंयम 2 [गुणस्थानवत्]
7. अप्रमत्त संथम
आस्रव
46 [12 अविरति, योग 13 (मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 5 - औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण काययोग), अप्रत्याख्यानादि कषाय 12, नोकषाय 9]
37 [गुणस्थानवत्
24 [गुणस्थानवत्
22 [गुणस्थानवत्]
-
आस्रव अभाव
2 [ आहारक और आहारक मिश्र
काययोग ]
11 [ उपर्युक्त 2 + 9 (स अविरति
अप्रत्याख्यान 4,
औदास्किमिश्र,
वैक्रियिक,
वैक्रियिकमिश्र और
कार्मण काययोग)]
24 [12 अविरति अप्रत्याख्यानादि ४
कषाय, औदारिकमिश्र,
वैक्रियिक,
वैक्रियिकमिश्र और
कार्मण काययोग ]
26 [ उपर्युक्त 24 + 2
(आहारक और
आहारकमिश्र
काययोग)]
[78]
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________________
•संदृष्टि नं. 54
क्षायिकसम्यक्त्व आस्रव 48 क्षायिकसम्यक्त्व में 48 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - 12 अविरति, योग 15 (मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 7-औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र और कार्मण काययोग), अप्रत्याख्यानादि कषाय 12, नोकषाय 9। गुणस्थान अविरत आदि ग्यारह होते हैं।
आस्रव अभाव
गुणस्थान | आस्रव व्युच्छित्ति | आस्रव 4.अक्स्ति [गुणस्थानक्त 46 [गुणस्थानवत्
2[आहारक और आहास्वमिश्र काययोग]
5.देशविस्त | 15 [गुणस्थानवत]
37 गुणस्थानक्त]
11[उपयुत्त2+9 (सअविरति, अप्रत्याख्यान4 औदारिकमिश्र, वैक्रियिकद्विक और कार्मणकाययोग)]
6.प्रात्तसंयम | 2[गुणस्थानवत
24 [गुणस्थानवत्
24[12अविरति, अप्रयाख्यानादि कषाय, औदारिकमिश्र वैक्रियिकद्विक और कार्मणकाययोग]
7. अप्रमत्त
संयम
22 गुणस्थानक्त
26 [उपर्युति 24+2 (आहारकऔर आहारथमिश्र काययोग)]
8.अपूर्व-
करण
गुणस्थानक्त्]
22 [गुणस्थानक्त
26 [उपर्युक्त
9.अनिवृत्ति- | 1 गुणस्थानवत करणभाग।
16 [गुणस्थानक्त]
32[उपयुत्त 26+ हास्य आदिनोक्षाय
[79]
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________________
गुणस्थान
19. भाग 2
19. भाग 3
19. भाग 4
9. भाग 5
9. भाग 6
10. सूक्ष्य साम्पराय
संयत
11. उपशांत
मोह
आसव व्युच्छित्ति
1 [गुणस्थानवत्]
1 [ गुणस्थानवत्]
1 [ गुणस्थानवत्]
1 [ गुणस्थानवत्]
1 [ गुणस्थानवत्]
1 [ गुणस्थानवत्]
0
12. क्षीण मोह 4 [गुणस्थानवत्
7 [ गुणस्थानवत्]
13. सयोग केवली
आसव
15 [गुणस्थानवत्]
14 [गुणस्थानवत्]
13 [गुणस्थानवत्]
12 [ गुणस्थानक्त्]
11 [गुणस्थानवत्
10 [गुणस्थानवत्]
9 [गुणस्थानवत्]
9 [गुणस्थानवत्
7 [गुणस्थानवत्]
आस्रव अभाव
33 [ उपर्युक्त 32 + नपुंसक वेद]
34 [उपर्युक्त 33 + स्त्रीवेद]
35 [ उपर्युक्त 34 + पुंवेद]
36 [ उपर्युक्त 35 + संज्वलन क्रोध ]
37 [ उपर्युक्त 36 + संज्वलन मान]
38 [ उपर्युक्त 37 + संज्वलन माया ]
39 [ उपर्युक्त 38 + संज्वलन लोभ ]
39 [उपर्युक्त ]
41 [अविरत 12,
अप्रत्याख्यानादि 12
कषाय, नोकषाय 9,
आहारकद्विक
वैक्रियिकद्विक,
असत्य, उभय मनोयोग,
असत्य
उभयवचनयोग]
[80]
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गुणस्थान 14. अयोग केवली
आस्रव व्युच्छित्ति
गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति
1. मिथ्यात्व
0
आस्रव
संदृष्टि नं. 55
मिथ्यात्व आस्रव 55
5 मिथ्यात्व, 12 अविरति,
मिथ्यात्व में 57 आम्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं योग 13 ( मनोयोग 4 वचनयोग 4, काययोग 5 औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण काययोग), कषाय 16, नोकषाय 9 । गुणस्थान एक मात्र मिथ्यात्व होता है ।
गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति
2. सासादन
0
0
आसव
55 [उपर्युक्त ]
संदृष्टि नं. 56
सासादन आस्रव 50
-
आस्रव
सासादन में 50 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं 12 अविरति, योग 13 ( मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 5 - औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोग), कषाय 16, नोकषाय 9 । गुणस्थान एक मात्र सासादन होता है ।
50 [12 अविरति, योग 13 ( मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 5 - औदारिक,
आसव अभाव
48] [उपर्युक्त 41 +7 (सत्य, अनुभय
मनोयोग, सत्य,
औदारिकमिश्र, वैकियिक, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोग), 16, नोवा 9]
अनुभवचनयोग,
औदारिकद्विक और
कार्मण काययोग]
आस्रव अभाव
0
आस्रव अभाव
0
[81]
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संदृष्टि नं. 57
मिश्र आस्रव 43 मिश्र में 43 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - 12 अविरति, योग 10 (मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 2 - औदारिक, वैक्रियिक), अप्रत्याख्यानादि कषाय 12, नोकषाय 9। गुणस्थान एक मात्र मिश्र आदि होता है।
गुणस्थान | आस्रव व्युच्छित्ति |
आस्रव अभाव
3.मिश्र
आस्रव 43[12 अक्रिति,योग 10 (मनोयोग4, वचनयोग 4,काययोग 2 - औदारिक, वैक्रियिक), अप्रत्याख्यानादि कषाय 12. नोक्षाय]
सण्णिस्स होति सयला वेगुव्वाहारदुगमसण्णिस्स। चदुमणमादितिवयणं अणिंदियं णत्थि पणदाला ।।5।।
संज्ञिनः भवन्ति सकला वैक्रियिककाहरदिकसंज्ञिनः। चतुर्मनांसि आदित्रिवचनानि अनिन्द्रिय न संति पंचचत्वारिंशत्॥
___ अर्थ - संज्ञी मार्गणा में संज्ञी में सभी सत्तावन आस्रव होते हैं। असंज्ञी में चार मनोयोग, तीन वचनयोग (सत्य, असत्य, उभय), वैक्रियिकद्विक, आहारकद्विक तथा मन अविरति से रहित पैंतालीस आम्रव होते हैं।
संदृष्टि नं. 58
संज्ञी आम्रव 57 संज्ञी में 57 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - 5 मिथ्यात्व, 12 अविरति, योग 15 (मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 7), कषाय 16, नोकषाय 9। गुणस्थान मिथ्यात्व आदि बारह होते हैं। इसकी संदृष्टि रचना गुणस्थान के समान जानना
[82]
15 मनोयोग, वचन
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चाहिए। (देखें संदृष्टि नं. 1 )
गुणस्थान
1. मिथ्यात्व
2 सासादन
3. मिश्र
4 अविस्त
15 देशविस्त
6. प्रमत्तसंयम
7. अप्रमत्तसंयम
8. अपूर्वकरण
9. अनिवृत्तिकरण भाग 1
9
9
9
9
9.
भाग 2
भाग 3
भाग 4
भाग 5
भाग 6
10. सूक्ष्यसाम्परायसंयत
11. उपशांतमोह
12. क्षीणमोह
आस्रव व्युच्छित्ति
5
4
0
9 [त्याख्यान त्रास अविरति, औदास्किमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण काययोग]
15
2
०
6
1
1
1
1
1
1
1
0
4
आसव
55
50
43
46
37
24
22
22
16
15
14
13
12
11
10
9
9
आस्रव अभाव
2
7
14
11
20
33
35
35
41
42
ཆ་ཆེ་བི་ཆེ་ཆ་ཆེ་ཆེ
[83]
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संदृष्टि नं.59
असंज्ञी आस्रव 45 असंज्ञी में 45 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - 5 मिथ्यात्व, मन अविरति बिना 11 अविरति, योग 4 (अनुभयवचनयोग, औदारिक, औदारिकमिश्र और कार्मणकाययोग), कषाय 16, नोकषाय 9। गुणस्थान मिथ्यात्व आदि दो होते हैं।
गुणस्थान | आस्रव व्युच्छित्ति
आस्रव
आस्रव अभाव
1.मिथ्यात्व
| 7 [5 मिथ्यात्व, अनुभयवचनयोग, औदारिककाययोग]
45 [5 मिथ्यात्व, मन बिना 11 अविरति, योग4(अनुभयवचनयोग, औदारिक, औदारिकमिश्रऔर कार्मण काययोग), कषाय 16, नोकषाय]
2.सासादन
| 4[अनन्तानुबंधी 4]
38 मिन बिना 11 अविरति, औदारिकमिश्रऔर कार्मणकाययोग, कषाय 16, नोकषाय 9]
7 [मिथ्यात्व5, अनुभयवचनयोगऔर औदारिक काययोग]
कम्मइयं वञ्जित्ता छपण्णासा हवंति आहारे। तेदाला णाहारे कम्मइयरजोगपरिहीणा ||60||
कार्मणं वर्जयित्वा षट्पंचाशद्भवन्त्याहारे। त्रिचत्वारिंशदनाहारे कार्मणेतरयोगपरिहीनाः॥
अर्थ - आहारक जीवों में कार्मण काययोग के बिना शेष छप्पन आस्रव तथा अनाहारक जीवों में कार्मण काययोग के बिना शेष चौदह योगों को कम करने पर (57-14) = 43 आस्रव होते हैं। अर्थात् अनाहारक जीवों में कार्मण काययोग का सद्भाव पाया जाता है, किन्तु अन्य योगों का नहीं।
1. कार्मणं विहाय इतरै: चतुर्ददशयोगैहींना इत्यर्थः ।।
[84]
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संदृष्टि नं. 60
आहारक आस्रव 56
-
आहारक में 56 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - 5 मिथ्यात्व, 12 अविरति, योग 14 ( मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 6 औदारिक, औदारिक मिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिक मिश्र, आहारक और आहारक मिश्र काययोग), कषाय 16, कषाय 9 । गुणस्थान मिथ्यात्व आदि 13 होते हैं ।
गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति 1. मिथ्यात्व 5 [गुणस्थानवत्
12. सासादन 4 [गुणस्थानवत्
3. मिश्र
4. अविस्त
5. देशवित
7. अप्रमत्त
संयम
8. अपूर्व
करण
0
7 [गुणस्थानवत्]
6. प्रमत्त संयम 2 [गुणस्थानक्त्]
15 [ गुणस्थानवत्
0
6] [ गुणस्थानवत्
आस्रव
54 [5] मिथ्यात्व, 12 अविरति, योग 12 (मनोयोग 4, क्चनयोग 4, काययोग 4 - औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिक और वैक्रियिकमिश्र काययोग),
कषाय 16, नोकषाय 9]
49 [गुणस्थानवत् 50 काययोग]
43 [गुणस्थानवत्]
45 [ गुणस्थानवत् 46 - कार्मण काययोग]
37 [गुणस्थानवत्]
24 [गुणस्थानवत्]
22 [गुणस्थानवत्]
22 [गुणस्थानवत्]
आस्रव अभाव
2 [गुणस्थानक्त्]
कार्मण 7 [गुणस्थानवत्]
13 [गुणस्थानवत् 14 - कार्मण काययोग]
11 [ गुणस्थानवत्
19 [गुणस्थानवत् 20 - कार्मण काययोग]
32 [गुणस्थानवत् 33
- कार्मण काययोग]
34 [गुणस्थानवत् 35
- कार्मण काययोग]
34 [गुणस्थानवत् 35
- कार्मण काययोग]
[85]
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गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति
9. अनिवृत्ति
1 [गुणस्थानवत्]
करण भाग 1
9. भाग2
9. भाग3
9. भाग4
9. भाग5
9. भाग6
10. सूक्ष्य साम्पराय
संवत
11. उपशांत
मोह
1 [ गुणस्थानवत्]
13. सयोग केचली
1 [गुणस्थानवत्]
1 [ गुणस्थानवत्
1 [गुणस्थानवत्]
1 [ गुणस्थानक्त्]
1 [गुणस्थानवत्
12. क्षीण मोह | 4 [गुणस्थानवत्
0
6 [गुणस्थानवत्]
आस्रव
16 [ गुणस्थानवत्]
15 [ गुणस्थानवत्
14 [गुणस्थानवत्]
13 [गुणस्थानवत्]
12 [गुणस्थानवत्]
11 [गुणस्थानवत्]
10 [गुणस्थानवत्
9 [गुणस्थानवत्
9 [गुणस्थानवत्]
6] [गुणस्थानक्त्]
आस्रव अभाव
40 [गुणस्थानवत् 41
-
- कार्मण काययोग]
41 [ गुणस्थानवत् 42 - कार्मण काययोग]
42 [गुणस्थानवत् 43
- कार्मण काययोग]
43 [गुणस्थानवत् 44
- कार्मण काययोग]
44 [गुणस्थानवत् 45 - कार्मण काययोग]
45 [गुणस्थानवत् 46
- कार्मण काययोग]
46 [गुणस्थानवत् 47 - कार्मण काययोग ]
47 [गुणस्थानवत् 48 - कार्मण काययोग]
47 [गुणस्थानवत् 48 - कार्मण काययोग]
50 [गुणस्थानवत् 51 - कार्मण काययोग]
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संदृष्टि नं. 61
अनाहारक आस्रव 43
अनाहारक में 43 आस्रव होते हैं जो इस प्रकार हैं - 5 मिथ्यात्व, 12 अविरति, कार्मणकाययोग, कषाय 16, नोकषाय 9 । गुणस्थान 1, 2, 4, 13 ये चार होते हैं।
आस्रव
आस्रव अभाव
गुणस्थान | आस्रव व्युच्छित्ति । 1.मिथ्यात्व | 5 गुणस्थानक्त | 43 [उपर्युत]
2.सासादन
5[अनन्तानुबन्धी4, स्त्रीवेद
38 [12 अविरति, कार्मण काययोग, |5[मिथ्यात्व 5] कषाय 16, नोकषाय]
4.अविस्त
32[अप्रत्याख्यानादि 12, कपाय, हास्यादित नोकषाय,पुद, नपुंसकद]
33 [उपर्युक्त 38-5 (अनन्तानुबंधी 4, | 10[मिथ्यात्व 5, | स्त्रीवेद)]
(अनन्तानुबंधी 4, स्त्रीवेद)]
13.सयोग केवली
कर्मणकाययोग]
[कर्मणकाययोग
42[उपर्युक्त 10+ अविरतिगुणस्थान के व्युच्छेत्र 32 आम्रव
इदि मग्गणासु जोगो पचयभेदो मया समासेण । कहिदो सुदमुणिणा जो भावइ सो जाइ अप्पसुहं ।।61||
इति मार्गणासु योग्यः प्रत्ययभेदो मया समासेन । कथित: श्रुतमुनिना यो भावयति स याति आत्मसुखं । अर्थ - इस प्रकार मार्गणाओं में योग आम्रव (प्रत्यय) भेद मुझ श्रुतमुनि के द्वारा संक्षेप से कहे गये। जो उपर्युक्त आम्रवों का भावपूर्वक चिन्तवन करता है, वह आत्म सुख को प्राप्त करता है।
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पयकमलजुयलविणमियविणे - यजणकयसुपूयमाहप्पो । णिज्जियमयणपहावो सो वालिंदो चिरं जयऊ ||62||
पदकमलयुगलविनतविनेयजनकृतसुपूजामाहात्म्य: । स बालेन्द्रः चिरं जयतु ॥
निर्जितमदनप्रभाव:
अर्थ - जिनके चरण कमल युगल नम्रीभूत शिष्य जनों के द्वारा की गई विशिष्ट. ८. पूजा से माहात्म्य को प्राप्त हैं तथा जिन्होंने कामदेव के मद के प्रभाव को जीत लिया है, वे बालचन्द्र मुनि चिरकाल तक जयवंत रहें । -
इति मार्गणाव - त्रिभंगी ।
इति श्री - श्रुतमुनि-विरचितास्रव - त्रिभंगी समाप्ता ।
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