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________________ पचयसत्तावण्णा गणहरदेवेहिं अक्खिया सम्म। ते चउबंधणिमित्ता बंधादो पंचसंसारे।।1।। प्रत्ययसप्तपंचाशत् गणधरदेवैः कथिताः सम्यक् । ते चतुबन्धनिमित्ताः बन्धतः पंचसंसारे॥ अर्थ - सत्तावन आस्रव (प्रत्यय) गणधर देव के द्वारा समीचीन प्रकार से कहे गये हैं। ये आसव, चारों प्रकार - प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबंध के कारण हैं तथा कर्मबंध से पंच प्रकार के संसार में परिभ्रमण होता है। पण'वण्णं पण्णासं तिदाल छादाल सत्ततीसा य। चउवीस दुवावीसं सोलसमेगूण जाव णव सत्ता ।।20।। पंचपंचाशत् पंचाशत् त्रिचत्वारिंशत् षट्चत्वारिंशत् सप्तत्रिंशच्च। चतुर्विशति: दिदाविंशतिः षोडश एकोनं यावन्नव सप्त॥ अर्थ - प्रथम गुण स्थान से सयोग केवली पर्यन्त क्रमशः पचपन, पचास, तेतालीस, छियालीस, सेतीस, चौबीस, बाईस, बाईस, सोलह, पन्द्रह, चौदह, तेरह, बारह, ग्यारह, दश, नौ, नौ तथा सात आस्रव (संख्या) जानना चाहिए। भावार्थ - मिथ्यात्व में पचपन, सासादन में पचास, मिश्र में तेतालीस, असंयत में छियालीस, देशसंयत में सेतीस, प्रमत्तसंयत में अत्रागममोक्तगाथाद्वयं यथापणवण्णा पण्णासा तिदाल छादाल सत्ततीसा य। चदुवीसा वावीसा बावीसमपुव्वकरणोत्ति ।।1।। थूले सोलसपहुदी एगणं जाव होदि दस ठाणं। सुहुमादिसु दस णवयं णवयं जोगिम्मि सत्तेव ।।2।। [] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002706
Book TitleAsrava Tribhangi
Original Sutra AuthorShrutmuni
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherGangwal Dharmik Trust Raipur
Publication Year2003
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size4 MB
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