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________________ मिस्सतियकम्मणूणा पुण्णाणं पच्चया जहाजोगा। मणवयणचउ-सरीरत्तयरहिता पुण्णगे होति ।।25।। मिश्रत्रिककार्मणोनाः पूर्णानां प्रत्यया यथायोग्यः। मनोवचनचतुः शरीरत्रयरहिता अपूर्ण-के भवन्ति ॥ अर्थ - पर्याप्त जीवों के औदारिक मिश्र, वैक्रियिक मिश्र, आहारक मिश्र और कार्मण काययोग से रहित यथायोग्य आस्रव (प्रत्यय) होते हैं। अपर्याप्तक जीवों के चार मनोयोग, चार वचनयोग, तीन (औदारिक, वैक्रियिक और आहारक) काययोग रूप प्रत्यय नहीं होते है। इत्थीपुंवेददुगं हारोरालियदुगं च वज्जित्ता। णेरइयाणं पढ़मे इगिवण्णा पचया होति ।।26।। स्त्रीपुंवेददिकं आहरकौदारिकद्धिकं वर्जयित्वा । नारकाणां प्रथमे एकपंचाशत्प्रत्यया भवन्ति ॥ अर्थ - प्रथम नरक में स्त्रीवेद, पुंवेद, औदारिक काययोग, औदारिक मिश्र काययोग, आहारक काययोग और आहारक मिश्र काययोग को छोड़कर इक्यावन आस्रव होते हैं। विदियगुणे णिरयगदि ण यादि इदि तस्स पत्थि कम्मइयं । वेगुव्वियमिस्सं च दु ते होति हु अविरदे ठाणे ।।27।। व्दितीयगुणेन नरकगतिं न याति इति तस्य नास्ति कार्मणं । वैक्रियिकमिश्रं च तु तौ भवतो हि अविरते स्थाने॥ 1. आहारद्विकं औदारिकद्विकं। 2. गुणस्थाने। 3. 'णहि सासणो अपुण्णे साहारणसुहुमगे य तेउदुगे'। इत्यागमे। [20] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002706
Book TitleAsrava Tribhangi
Original Sutra AuthorShrutmuni
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherGangwal Dharmik Trust Raipur
Publication Year2003
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size4 MB
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